४१२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । कभी संन्यास करने की अपेक्षा उन्हीं कर्मों को निष्काम-बुद्धि से लोककल्याणा के लिये करते रहना अधिक श्रेयस्कर है (गी.३.८, ५.२)- उसके साधक तथा बाधक कारणों का विचार ग्यारहवें प्रकरण में किया जा चुका है। परन्तु गीता में कहे गये इस कर्मयोग की पश्चिमीय कर्ममार्ग से, अथवा पूर्वी संन्यासमार्ग की पश्चिमी कर्मत्याग-पक्ष से, तुलना करते समय उक्त सिद्धान्त का कुछ अधिक स्पष्टी- करण करना आवश्यक मालूम होता है। यह मत वैदिक धर्म में पहले पहल उप- निषत्कारों तथा सांख्यवादियों द्वारा प्रचलित किया गया है, कि दुःखमय तथा निस्सार संसार से बिना निवृत्त हुए मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसके पूर्व का वैदिकधर्म प्रवृत्ति-प्रधान अर्थात् कर्मकांडात्मक ही था। परन्तु, यदि वैदिक धर्म को छोड़ अन्य धर्मों का विचार किया जाय तो यह मालूम होगा, कि उनमें से बहुतों ने प्रारंभ से ही संन्यासमार्ग को स्वीकार कर लिया था । उदाहरणार्थ, जैन और बौद्ध धर्म पहले ही से निवृत्ति-प्रधान है, और ईसामसीह का भी वैसा ही उपदेश है । बुद्ध ने अपने शिष्यों को यही अंतिम उपदेश दिया है, कि "संसार का त्याग करके यति-धर्म से रहना चाहिये, स्त्रियों की ओर देखना नहीं चाहिये और उनसे वात-चीत भी नहीं करना चाहिये" (महापरिनिन्वाण सुत्त ५. २३); ठीक इसी तरह मूल ईसाईधर्म का भी कथन है । ईसा ने यह कहा है सही, कि " तू अपने पड़ोसी पर अपने ही समान प्यार कर " (मैथ्यू. १९. १६); और, पाल का भी कथन है सही, कि " तू जो कुछ खाता, पीता या करता है वह सव ईश्वर के लिये कर” (१ कारि. १०.३१), और, ये दोनों उपदेश ठीक उसी तरह के हैं जैसा कि गीता में आत्मौपम्य-बुद्धि से ईश्वरार्पण-पूर्वक कर्म करने को कहा गया है (गी. ६. २६ और ६. २७) । परन्तु केवल इतने ही से यह सिद्ध नहीं होता कि ईसाईधर्म गीताधर्म के समान प्रवृत्ति-प्रधान है। क्योंकि ईसाईधर्म में भी अंतिम साध्य यही है कि मनुष्य को अमृतत्व मिले तथा वह मुक्त हो जावे, और उसमें यह भी प्रतिपादन किया गया है कि यह स्थिति घरद्वार त्यागे विना प्राप्त नहीं हो सकती, अतएव ईसामसीह के मूलधर्म को संन्यास-प्रधान ही कहना चाहिये । स्वयं ईसामसीह अंत तक अहिवाहित रहे । एक समय एक आदमी ने उनसे प्रश्न किया कि "मा-चाप तथा पड़ोसियों पर प्यार करने के धर्म का मैं अब तक पालन करता चला आया हूं, अव मुझे यह बतलाओ कि अमृतत्व मिलने में क्या कसर सव तो ईसा ने साफ़ उत्तर दिया है कि " तू अपने घरद्वार को बेच दे या किसी गरीव को दे डाल और मेरा भक्त बन "(मेथ्यू. १६. १६-३० और मार्क १६.२१-३); और वे तुरन्त अपने शिष्यों की ओर देख उनसे कहने लगे कि "सूई के छेद से ऊँट भले ही निकल जाय, परन्तु ईश्वर के राज्य में किसी धन- वान् का प्रवेश होना कठिन है।" यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं देख पड़ती कि यह उपदेश, याज्ञवल्क्य के उस उपदेश की नकल है कि जो उन्हों ने मैत्रेयी को किया था। वह उपदेश यह है-"अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन" (बृ.२
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