गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। विरुख और असंबद्ध वात है, इसलिये दोनों को सदैव भिन्न मानना चाहिये क्योंकि इन दोनों में पूर्ण अथवा अपूर्ण रीति से भी एकतानहीं होसकती। इस तीसरे संप्रदाय को द्वैतसंप्रदाय' कहते हैं। इस संप्रदाय के लोगों का कहना है कि इसके प्रवर्तक श्री- मध्वाचार्य (श्रीमदानंदतीर्य) थे जो संवत् १२५५ में समाधिस्य हुए और उस समय उनकी अवस्था ७६ वर्ष की थी। परन्तु डाक्टर भांडारकर ने जो एक अंग्रेजी ग्रन्य, 'वैष्णव, शैव और अन्य पन्य" नामक, हाल ही में प्रकाशित किया है उसके पृष्ठ ५. में, शिलालेख आदि प्रमाणाले, यह सिद्ध किया गया है कि मध्वाचार्य का समय संवत् १२५४ से १३३३ तक था । प्रस्थानत्रयी पर (अर्थात् गीता पर भी) श्रीराध्वाचार्य के जो भाष्य हैं उनमें प्रस्थानत्रयों के सब अन्यों का द्वैतमत-प्रतिपादक होना ही बतलाया गया है। गीता के अपने भाष्य में मध्वाचार्य कहते हैं कि यद्यपि गौता में निष्काम कर्म के महत्व का वर्णन है, तथापि वह केवल साधन है और भकि ही चंतिम निटा है। भक्ति की सिद्धि शेजाने पर कर्म करना और न करना वरावर है। ध्यानात् कर्मफलत्यागः "-परमेश्वर के ध्यान अथवा भक्ति की अपेक्षा कर्मफल- त्याग अर्थात् निष्काम कर्म करना श्रेष्ट ई-इत्यादि गीता के कुछ वचन इस सिद्धान्त के विल्द हैं परन्तु गीता के माध्वमाप्य (गी. मामा. १२.३) में लिखा है कि इन वचनों को अक्षरशः सत्य न समझ कर अर्थवादात्मक ही समझना चाहिये। चौया संप्रदाय श्रीवल्लभाचार्य (जन्म संवत् १५३६) का है। रामानुजीय और माध्य संप्रदायों के समान ही यह संप्रदाय मी घावपंथी है। परन्तु जीव, जगत् और ईश्वर के संबंध में, इस संप्रदाय कामत, विशिष्टाईत और ईत मतों से मित्र है। यह पंय इस मत को मानता है कि मायारहित शुद्ध जीव और परब्रह्म ही एक वस्तु है-दो नहीं । इसलिये इसको 'शुद्धाइती' संप्रदाय कहते हैं। त्यापि यह त्रीशंकराचार्य के समान इस बात को नहीं मानता किजीव और ग्रह एक ही है, और इसके सिद्धान्त कुछ ऐसे हैं। जैसे जीव, अनि की चिनगारी के समान, ईश्वर का अंश है मायात्मक जगत् निच्या नहीं है, माया, परमेश्वर की इच्छा से विमत हुई, एक शक्ति है। मायाधीन जीव को विना ईश्वर की कृपा के मोशज्ञान नहीं हो सकता इसलिये मोक्ष का मुख्य साधन भगवद्भक्ति ही है-जिनसे यह संप्रदाय शांकर संप्रदाय से भी मिन्न हो गया है। इस मार्गवाले परमेश्वर के अनुग्रह को पुष्टि और ' भी कहते हैं, जिससे यह पन्य 'पुष्टिमार्ग' भी कहलाता है। इस संप्रदाय के तत्वदीपिका आदि जितनं गीतासंबंधी अन्य हैं उनमें यह निर्णय किया गया है कि, भगवान् के अर्जुन को पहले सांत्यज्ञान और कर्मयोग बतलाया है, एवं अंत में उसको समयमृत पिला कर कृतकृत्य किया है इसलिये भगवद्भकि- और विशेषतः निवृत्ति-विषयक पुष्टिमार्गीय मक्कि-ही गीता का प्रधान ताप है। यही कारण है कि भगवान् ने गीता के अन्त में यह उपदेश दिया है कि "सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं चल "-सब धर्मों को छोड़ कर केवल मेरी ही शरण ले (गी. ३५.६६) पर्युक संप्रदायों के अतिरिक्त निम्बाई का चलाया 'पोपण'
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