पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५२९

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । का ज्ञान प्राप्त किये बिना, ज्ञान की पूर्ति तो होती ही नहीं; किन्तु इस संसार में हर एक मनुष्य का जो यह परम कर्तव्य है, कि शरीरस्थ भात्मा को पूर्णावस्था में पहुँचा दे, वह भी इस ज्ञान के विना सिद्ध नहीं हो सकता । चाहे नीति को लीजिये, न्यवहार को लीजिये, धर्म को लीजिये अथवा किसी भी दूसरे शास्त्र को लीजिये, अध्यात्मज्ञान ही सब की अंतिम गति है-जैसे कहा है “सर्व कमांखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।" हमारा भक्तिमार्ग भी इसी तत्त्वज्ञान का अनुसरण करता है इसलिये उसमें भी यही सिद्धांत स्पिर रहता है, कि ज्ञानदृष्टि से निप्पल होनेवाला साम्यबुद्धिरूपी तत्व ही मोक्ष का तथा सदाचरण का मूलस्यान है । वेदान्तशास्त्र से सिद्ध होनेवाले इस तत्त्व पर एक ही महत्त्वपूर्ण श्राप किया जा सकता है। यह यह है कि कुछ वेदान्ती ज्ञानप्राप्ति के अनन्तर, सब कर्मों का संन्यास कर देना उचित मानते हैं। इसीलिये यह दिखला कर कि ज्ञान और कर्म में विरोध नहीं है, गीता में कर्मयोग के इस सिद्धान्त का विस्तार सहित वर्णन किया गया है. कि वासना का क्षय होने पर भी ज्ञानी पुरुप अपने सय कर्मों को परमेश्वरार्पणपूर्वक बुद्धि से लोकसंग्रह के लिये केवल कर्तव्य समझ कर ही करता चला जावे । अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिये यह उपदेश अवश्य दिया गया है कि तू परमेश्वर को सव कर्म समर्पण करके युद्ध कर; परन्तु यह उपदेश केवल तत्कालीन प्रसंग को देख कर ही किया गया है (गी. ८.७) । उक्त उपदेश का भावार्थ यही मालूम होता है कि अर्जुन के समान ही किसान, सुनार, लोहार, बढ़ई, बनिया, ब्राह्मण, व्यापारी, लेखक, उद्यमी इत्यादि सभी लोग अपने अपने अधिकारानुरूप व्यवहारों को परमेश्वरापेण-बुद्धि से करते हुए संसार का धारण-पोषण करते रहें, जिसे जो रोजगार निसर्गतः प्राप्त हुआ है उसे यदि वह निष्काम-बुद्धि से करता रहे तो उस कत्ता को कुछ मी पाप नहीं लगेगा; सब कर्म एक ही से हैं दोप केवल कर्ता की बुद्धि में है, न कि उसके कर्मों में; अतएव बुद्धि को सम करके यदि सब कर्म किये जायें तो परमेश्वर की उपासना हो जाती है, पाप नहीं लगता और अंत में सिदि भी मिल जाती है। परन्तु जिन (विशेषतः अर्वाचीन काल के) लोगों का यह दृढ़ संकल्प सा हो गया है, कि चाहे कुछ भी हो जाय, इस नाशवान् दृश्य सृष्टि के आगे बढ़ कर प्रात्म-अनात्म-विचार के गहरे पानी में पैठना ठीक नहीं है। वे अपने नीतिशास्त्र का विवेचन, ब्रह्मात्मैक्यरूप परमसाध्य की उच्च श्रेणी को छोड़ कर, मानव-जाति का कल्याण या सर्वभूतहित जैसे निन्न कोटि के आधिभौतिक घश्य (परन्तु अनित्य) तत्त्व से ही शुरू किया करते हैं। स्मरण रहे कि किसी पेड़ की चोटी को तोड़ देने से वह नया पेड़ नहीं कहलाता; उसी तरह आधि- मौतिक पंडितों का निर्माण किया हुआ नीतिशास्त्र भोंदा या अपूर्ण भले ही हो, परन्तु वह नया नहीं हो सकता । ब्रह्मात्मैक्य को न मानकर प्रत्येक पुरुप को स्वतंत्र माननेवाले हमारे यहाँ के सांख्यशास्त्रज्ञ पंडितों ने भी, यही देख कर कि दृश्य जगत् का धारण-पोपण और विनाश किन गुणों के द्वारा होता है, सत्व-रज-तम तीनों