४८८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । उपपत्ति को आधिभौतिक उपपत्ति से मी पर ले जाते हैं, और आत्मज्ञान तया नीति या धर्म का मेल करके इस बात का निर्णय करते हैं कि संसार में मनुष्य का सच्चा कर्तव्य क्या है। इस पन्य को हमने 'आध्यात्मिक' कहा है। इन तीनों पन्यों में प्राचार-नीति एक ही है. परन्तु पिण्ड-ब्रह्मांड की रचना के सम्बन्ध में प्रत्येक पन्य का मत भिन्न भिन्न है, इससे नीतिशास्त्र के नूलतत्त्वों का स्वरूप हर एक पन्य में योड़ा थोड़ा बदलता गया है । यह वात प्रगट है किव्याकरण-शास्त्र कोई नई भाषा नहीं बनाता, किन्तु जो मापा व्यवहार में प्रचलित रहती है उसी के नियमों की वह खोज करता है और भाषा की उन्नति में सहायक होता है। ठीक यही हाल नीतिशास्त्र का भी है । मनुष्य इस संसार में जब से पैदा हुआ है उसी दिन से वह स्वयं अपनी ही बुद्धि से अपने आचरण को देशकालानुसार शुद्ध रखने का प्रयत्न भी करता चला धाया है और, समय समय पर जो प्रसिद्ध पुरुष या महात्मा हो गये हैं उन्हों ने अपनी अपनी समझ के अनुसार आचार-शुद्धि के लिये चोदना' या प्रेरणारूपी अनेक नियम भी बना दिये हैं। नीतिशास्त्र की उत्पत्ति कुछ इस लिये नहीं हुई है, कि वह इन नियमों को तोड़ कर नये नियम बनाने लगे। हिंसा मत कर, सच बोल, परोपकार कर, इत्यादि नीति के नियम प्राचीन काल से ही. चलते आये हैं। अव नीतिशास्त्र का सिर्फ यही देखने का काम है, कि नीति की योचित वृद्धि होने के लिये सब नीति-नियमों में भूलतत्व क्या है। यही कारण है कि जब हम नीतिशास्त्र के किसी भी पन्य को देखते हैं, तब हम वर्तमान प्रचलित नीति के प्रायः सब नियमों को समी पयों में एक ले पाते हैंउनमें जो कुछ भेद दिखलाई पड़ता है, वह उपपत्ति के स्वरूपभेद के कारण है और, इसलिये डा० पाल कारस का यह कथन सच मालूम होता है कि इस भेद के होने का मुख्य कारण यही है कि हरएक पंथ में पिंड-ब्रह्मांड की रचना के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न मत है। अव यह यात सिद्ध हो गई कि मिल, स्पेन्सर, कान्द आदि आधिभौतिक पंथ के आधुनिक पाश्चात्य नीतिशास्त्र विषयक अन्यकारों ने आनौपम्य-दृष्टि के मुलभ तथा व्यापक तत्त्व को छोड़कर, "सर्वभूतहित " या " अधिकांश लोगों का अधिक हित जैसे आधिभौतिक और वाल" तत्व पर ही नीतिमत्ता को स्थापित करने का जो प्रयत्न किया है, वह इसी लिये किया है कि पिंडब्रह्मांड- सम्बन्धी उनके मत प्राचीन मतों से भिन्न हैं। परन्तु जो लोग उक्त नृतन मतों को नहीं मानते और जो इन प्रश्नों का स्पष्ट तथा गंभीर विचार कर लेना चाहते हैं- कि “ मैं कौन हूँ? सृष्टि क्या है? मुझे इस सृष्टि का ज्ञान कैसे होता है? जो सृष्टि मुझ से बाहर है वह स्वतंत्र है या नहीं? यदि है, तो उसका मूलतत्व क्या है? इस तत्व से मेरा क्या सम्बन्ध है? एक मनुष्य दूसरे के सुख के लिये अपनी जान क्यों देवे? 'जो जन्म लेते हैं मरते मी 'इस नियम के अनुसार यदि यह वातानीश्चत. है, कि जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसका और उसके साथ समस्त प्राणियों का
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