गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । विषयक अन्य में इस प्रश्न का यह उत्तर देता है, कि " पिंड-ब्रह्मांड की रचना के सम्बन्ध में मनुष्य की जैसी समझ (राय) होती है, उसी तरह नीतिशास्त्र के मूल तत्वों के सम्बन्ध में उसके विचारों का रंग बदलता रहता है। सच पूछो तो, पिंढ- ब्रह्मांड की रचना के सम्बन्ध में कुछ न कुछ निश्चित मत हुए बिना नैतिक प्रश्न ही उपस्थित नहीं हो सकता । पिंड-ब्रह्मांड की रचना के सम्बन्ध में कुछ पक्का मत न रहने पर भी हम लोगों से कुछ नैतिक आचरण कदाचित् हो सकता है। परन्तु यह आचरण स्वभावस्था के व्यापार के समान होगा, इसलिये इसे नैतिक कहने के बदले देह-धर्मानुसार होनेवाली केवल एक कायिक क्रिया ही कहना चाहिये । " उदा- हरणार्थ, बाधिन अपने बच्चों की रक्षा के लिये प्राण देने को तैयार हो जाती है। परन्तु इसे हम उसका नैतिक आचरण न कह कर उसका जन्म-सिद्ध स्वभाव ही कहते हैं। इस उत्तर से इस बात का अच्छी तरह स्पष्टीकरण हो जाता है, कि नीतिशास्त्र के टपपादन में अनेक पंथ क्यों हो गये हैं। इसमें कुछ संदेह नहीं कि "मैं कौन हूँ, यह जगत् कैसे उत्पन्न हुआ, मेरा इस संसार वे क्या उपयोग हो सकता है " इत्यादि गूढ प्रश्नों का निर्णय जिस वाव से हो सकेगा, उसी तत्त्व के अनुसार प्रत्येक विचारवान् पुरुप इस बात का भी निर्णय अवश्य करेगा, कि मुझे अपने जीवन काल में अन्य लोगों के साथ कैसा यताव करना चाहिये । परन्तु इन गूढ़ प्रश्नों का उत्तर भिन्न मिन काल में तथा भिन्न भिन्न देशों में एक ही प्रकार का नहीं हो सकता । यूरोपखंड में जो इसाई धर्म प्रचलित है उसमें यह वर्णन पाया जाता है, कि मनुष्य और सृष्टि का कत्ती, याइयल में वर्णित सगुण परमेश्वर है और उसी ने पहले पहल संसार को उत्पन्न करके सदाचार के नियमादि बनाकर मनुष्यों को शिक्षा दी है तथा प्रारंभ में ईसाई पंडितों का भी यही अभिप्राय था कि वाइवल में वर्णित पिंढ-ब्रह्मांड की इस कल्पना के अनुसार बाइबल में कहे गये नीति-नियम ही नीतिशास्त्र के मूल तत्त्व हैं फिर जब यह मालूम होने लगा कि ये नियम व्यावहारिक दृष्टि से अपूर्ण है, तब इनकी पूर्ति करने के लिये अथवा स्पष्टी- करणार्य यह प्रतिपादन किया जाने लगा, कि परमेश्वर ही ने मनुष्य को सदसद्विवेक शक्ति दी है। परन्तु मनुमव से फिर यह अड़चन दिख पड़ने लगी, कि चोर और साह दोनों की सदसद्विवेक शक्ति एक समान नहीं रहती; तव इस मत का प्रचार होने लगा कि परमेश्वर की इच्छा नीति शास्त्र की नींव भले ही हो, परंतु इस ईश्वरी इच्छा के स्वरूप को जानने के लिए केवल इसी एक यात का विचार करना चाहिये, कि अधिकांश लोगों का अधिक सुख किसमें ई-इसके सिवा परमेश्वर की इच्छा को जानने का अन्य कोई मार्ग नहीं है । पिंड-ब्रह्मांड की रचना के संबंध में ईसाई लोगों की जो यह समझ ई-कि वाइबल में वर्णित सगुग्ण परमेश्वर ही संसार का कती है और यह उसकी ही इच्छा या आज्ञा है कि मनुष्य नीति के नियमानुसार वर्ताव करे-उसी के अधार पर उक्त सव मत प्रचलित हुए हैं। परन्तु आधिभौतिक शास्त्रों की उन्नति तथा वृद्धि होने पर जब यह मान्नुम होने लगा कि
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