उपसंहार । ४८३ किया है कि बाय सृष्टि का अर्थात् ब्रह्माण्ड का जो अगम्य तत्त्व है वही आत्मस्व- रूप से पिण्ड में अर्थात् मनुष्य-देह में अंशतः प्रादुर्भूत हुआ है । इसके अनन्तर उसने यह प्रतिपादन किया है, कि मनुष्य-शरीर में एक नित्य और स्वतंत्र तत्व है (अर्थात् जिसे आत्मा कहते हैं जिसमें यह उत्कट इच्छा होती है कि सर्व- भूतान्तर्गत अपने सामाजिक पूर्ण स्वरूप को अवश्य पहुँच जाना चाहिये, और यही इच्छा मनुष्य को सदाचार की ओर प्रवृत्त किया करती है, इसी में मनुष्य का नित्य और चिरकालिक कल्याण है, तथा विषय-सुख अनित्य है। सारांश यही देख पड़ता है कि यद्यपि कान्ट और ग्रीन दोनों ही की दृष्टि आध्यात्मिक तयापि ग्रीन व्यवसायात्मक बुद्धि के व्यापारों में ही लिपट नहीं रहा, किन्तु उसने कर्म-अकर्म-विवेचन की तथा पासना-स्वातंत्र्य की उपपत्ति को, पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों में एकता से व्यक्त होनेवाले शुद्ध आत्मस्वरूप तक पहुँचा दिया है । कान्ट और ग्रीन जैसे आध्यात्मिक पाश्चात्य नीतिशासज्ञों के उक्त सिद्धान्तों की और नीचे निखे गये गीता-प्रतिपादित कुछ सिद्धान्तों की तुलना करने से देख पड़ेगा, कि यद्यपि वे दोनों अक्षरशः एक बराबर नहीं हैं, तथापि उनमें कुछ अद्भुत समता अवश्य है। देखिये, गीता के सिद्धान्त ये है:-(१) वास कर्म की अपेक्षा कर्ता की (वासनात्मक) बुद्धि ही श्रेष्ठ है; (२) व्यवसायात्मक बुद्धि आत्मनिष्ठ हो कर जय संदेहनहित तयां सम हो जाती है, तब फिर वासनात्मक बुद्धि पाप ही आप शुद्ध और पवित्र हो जाती है। (३) इस रीति से जिसकी बुद्धि सम और स्थिर हो जाती है, वह स्थितप्रज्ञ पुरुष हमेशा विधि और नियमों से परे रहा करता है, (४) और उसके आचरण तथा उसकी आत्मैश्यबुद्धि से सिद्ध होनेवाले नीति- नियम सामान्य पुरुषों के लिये आदर्श के समान पूजनीय तथा प्रमाणभूत हो जाते हैं और (५) पिण्ड अर्थात देह में तथा ब्रमाण्ड अर्थात् सृष्टि में एक ही आत्म- स्वरूपी तत्व है, देहान्तर्गत आत्मा अपने शुद्ध और पूर्ण स्वरूप (मोन) को प्राप्त कर लेने के लिये सदा उत्सुक रहता है तथा इस शुद्ध स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर सब प्राणियों के विषय में प्रात्मौपम्य-दृष्टि हो जाती है । परन्तु यह यात ध्यान देने योग्य है कि ब्रह्मा, प्रात्मा, माया, श्रात्म-स्वातंत्र्य, ब्रह्मात्मैक्य, कर्मविपाक इत्यादि विषयों पर हमारे वेदान्तशाख के जो सिद्धान्त हैं, वे कान्ट और ग्रीन के सिद्धान्तों से भी बहुत आगे बढ़े हुए तथा अधिक निश्चित हैं। इसलिये उपनिषदा- न्तर्गत वेदान्त के आधार पर किया हुआ गीता का कर्मयोग-विवेचन आध्यात्मिक दृष्टि से असंदिग्ध, पूर्ण तथा दोपरहित हुआ है। और, प्राजकल के वेदान्ती जर्मन पंडित प्रोफेसर डायसन ने नीति-विवेचन की इसी पद्धति को, अपने " शास्त्र के मूलतत्व " नामक ग्रन्थ में, स्वीकार किया है । डायसन, शोपेनहर का अनुयायी है। उसे शोपेनहर का यह सिद्धान्त पूर्णतया मान्य है, कि “ संसार का Green & Prolegomena to Ethics, $ $ 99, 174.179 and 233-232. अध्यात्म
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५२२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।