पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५२०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपसंहार। ४८१ भविष्य में ही उसके मिल सकने की कुल संभावना है, इसलिये सुखदुःखों की ठीक ठीक कीमत ठहराने का काम, यानी उनके महाप या योग्यता का निर्णय करने का काम, प्रत्येक मनुष्य को अपने अपने मन से ही करना पड़ेगा। परन्तु जिसके मन में ऐसी शात्मौपम्य पुदि पूर्ण रीति से जागृत नहीं हुई है, कि 'जैसा मैं हूँ वैसा ही दूसरा भी है, उसे दूसरों के सुख-दुःख की तोपता का स्पष्ट ज्ञान कभी नहीं हो सकता। इसलिये वह इन सुख-दुःखों की सच्ची योग्यता कभी जान ही नहीं सकेगा; और, फिर तारतम्य का निर्णय करने के लिये उसने सुख-दुःखों की जो कुछ कीमत पहले ठहरा लो होगी उसमें भूल हो जायगी और अंत में उसका किया तुमा सय हिसाय भी गलत हो जायगा। इसीलिये कहना पड़ता है, कि "धिकांश लोगों के अधिश मुख को देखना" इस वाक्य में "देखना" सिर्फ हिसाय करने की चार किया है जिसे अधिक महत्व नहीं देना चाहिये, किन्तु जिस प्रात्मौपम्य प्लौर निलीम बुद्धि से (अनेका) दूसरों के सुख-दुःखों की यथार्थ कीमत पहले ठदाई जाती , यही सब प्रागिायों के विषय में साम्यावस्था को पहुँची हुई शुख युति ही नीतिमत्ता की सच्ची जड़ है । स्मरण रहे कि नीतिमत्ता निर्मम, शुन्द, प्रेमी, सम, गा (संक्षेप में कहें तो) सत्वशील अंतःकरण का धर्म है। यह छन् केवल सार-प्रसार-विचार का फल नहीं है। यह सिद्धान्त इस कथा से और भी स्पष्ट हो जायगा; भारतीय युद्ध के याद युधिष्ठिर के राज्यासीन होने पर जत्र कुन्ती अपने पुत्रों के पराकम से कृतार्थ हो चुकी, तय यह एतराष्ट्र के साथ वानप्रस्थाश्रम का एगचरण करने के लिये पन को जाने लगी। उस समय उसने युधिष्टिर को कुछ उपदेश किया है और, 'तु, अधिकांश लोगों का कल्याण किया कर' इत्यादि दात का बताड़ न कर, उसने युधिष्ठिर से सिर्फ यही कहा है कि " मनस्ते महदस्त घ" (ममा. सन. १७. २१) अर्थात् 'तू अपने मन को हमेशा विशाल बनाये रख । ' जिन पश्चिमी पंडितों ने यह प्रतिपादन किया है, कि केवल “ अधि- कांश लोगों का अधिक सुख किसमें है" यही देखना नीतिमत्ता की सच्ची, शास्त्रीय और सीधी कसौटी है; वे कदाचित् पहले ही से यह मान लेते हैं कि उनके समान ही अन्य सब लोग शुद्ध मन के हैं, और ऐसा समझ कर ये अन्य सघ लोगों को यह बतलाते हैं कि नीति का निर्णय किस रीति से किया जाये । परन्तु ये पंडित जिस बात को पहले ही से सान लेते हैं वह सच नहीं हो सकती, इसलिये नीति- निर्णय का उनका नियम अपूर्ण और एक-पक्षीय सिद्ध होता है । इतना ही नहीं; बल्कि उनके लेखों से यह भ्रमकारक विचार भी उत्पस हो जाता है कि मन, स्वभाव या शील को यथार्थ में अधिक-मधिक शुद्ध और पापभीरू बनाने का प्रयत्न करने के बदले, यदि कोई नीतिमान बनने के लिये अपने कर्मों के बाह्य परिणामों का हिसाब करना सीख ले तो बस होगा; और, फिर जिनकी स्वार्थबुद्धि नहीं छूटी रहती है ये लोग धूर्त, मिथ्याचारी या ढोंगी (गी. ३.६) बनकर सारे समाज की हानि का कारण हो जाते हैं । इसलिये केवल नीतिमत्ता की कसौटी गी.र.६१