उपसंहार। ४७७ हिस्सा तुमने माँगा, और युद्ध टालने के लिये यथाशक्ति गम खाकर बीच-बचाव करने का भी तुमने बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु जब इस मेल के प्रयत्न से और साधुपन के मार्ग से निर्वाह नहीं हो सका, तब लाचारी से तुमने युद्ध करने का निश्चय किया है। इसमें तुम्हारा कुछ दोष नहीं है। क्योंकि दुष्ट मनुष्य से, किसी मामा की ना, अपने धर्मानुसार प्राप्त इक की भिक्षा न माँगते हुए, मौका आ पड़ने पर क्षत्रियधर्म के अनुसार लोक-संग्रहार्य उसकी प्राप्ति के लिये युद्ध करना ही तुम्हारा कर्तव्य है (मभा. उ. २८ और ७२ वनपर्व ३३. ४८ और ५० देखो)। भगवान् के उक्त युक्तिवाद को प्याजी ने भी स्वीकार किया है और उन्होंने इसी के द्वारा आगे चलकर शान्तिपर्व में युधिष्ठिर का समाधान किया है (शां. प्र. ३२ पौर ३३)। परन्तु कर्म-कर्म का निर्णय करने के लिये घुद्धि को इस तरह से श्रेष्ट मान लें, तो अब यह भी अवश्य जान लेना चाहिये कि शुन्छ घुदि किसे कहते हैं। क्योंकि मन और युद्धि दोनों प्रकृति के विकार हैं। इसलिये चे स्वभावतः तीन प्रकार के अर्यात सात्विक, राजस और तामस हो सकते हैं। इसीलिये गीता में कहा है, कि शुद्ध या सात्विक बुद्धि यह है कि जो बुद्धि से भी परे रहनेवाले नित्य आत्मा के स्वरूप को पहचाने और यह पहचान कर कि सब प्राणियों में एक ही यात्मा है, उसी के अनुसार कार्य-अकार्य का निर्णय करे । इस सास्विक बुद्धि का ही दूसरा नाम साम्य- युद्धि है और इसमें साम्य शब्द का अर्थ " सर्वभूतान्तर्गत आत्मा की एकता या समानता को पहचाननेवाली " है । जो धुति इस समानता को नहीं जानती वह न तो शुद्ध है और न साधिक । इस प्रकार जब यह मान लिया गया कि नीति का निर्णय करने में सान्य-युद्धि ही श्रेष्ठ है। तय यह प्रश्न उठता है कि बुद्धि की इस समता अथवा साम्य को कैसे पहचानना चाहिये ? क्योंकि बुद्धि तो अन्त- रिन्द्रय है, इसलिये उसका भला-बुरापन इमारी आँखों से देख नहीं पड़ता । अत- एव बुद्धि की समता तथा शुद्धता की परीक्षा करने के लिये पहले मनुष्य के बाल प्राचरण को देखना चाहिये, नहीं तो कोई भी मनुष्य ऐसा कह कर, कि मेरी युद्धि शुद्ध है, मनमाना बर्ताव करने लगेगा। इसी से शाशी का सिद्धान्त है, कि सचे ग्रामज्ञानी पुरुप की पहचान उसके स्वभाव से ही हुआ करती है, जो केवल मुँह से कोरी बातें करता है वह सच्चा साधु नहीं। भगवद्गीता में भी स्थितप्रज्ञा तथा भगवद्भक्तों का लक्षण बतलाते समय खास करके इसी यात का वर्णन किया गया है, कि वे संसार के अन्य लोगों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं। और, तेरहवं अध्याय ज्ञान की व्याख्या भी इसी प्रकार अर्थात् यह बतला कर कि स्वभाव पर ज्ञान का क्या परिणाम होता है की गई है । इससे यह साफ़ मालूम होता है, कि गीता यह कभी नहीं कहती कि बावं कमी की ओर कुछ भी ध्यान न दो । परन्तु, इस बात पर भी ध्यान देना चाहिये, कि किसी मनुष्य की विशेष करके अनजाने मनुष्य की शुद्धि की समता की परीक्षा करने के लिये यद्यपि केवल उसका वाय कर्म या आचरण-और, उसमें
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