पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५११

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । यद्यपि एक छोरसा ग्रंथ है, तो भी उसमें सांप्रदायिक टीकाकारों के मतानुसार केवल मोक्षप्राप्ति ही का ज्ञान यनलाया गया है । परन्तु किसीने इस बात को नहीं साचा, कि संन्यास और कर्मयोग, दोनों मागं, हमारे यहाँ वैदिक काल से ही प्रचलित है। किसी भी समय समाज में संन्यासमागियों की अपेक्षा कर्मयोग ही के अनुयायियों की संख्या हजारों गुना अधिक हुणकती है- और, पुराण-इतिहास आदि में जिन कर्मशील महापुरु0 का अयांत् कर्मवीरों का वर्णन है, वे सब कर्मोगमार्ग का ही अवलम्ब करनेवाले थे ! यदि ये सब बातें सच हैं, तो क्या इन कर्मवीरों में से किसी को भी यह नहीं सूना होगा कि अपने कर्मयोगमार्ग का समर्थन किया जाना चाहिये? अच्छा; याद कहा जाय, कि उस समय जितना ज्ञान था वह सब ब्राह्मण-जाति में ही था, और वेदान्ती ब्राह्मण कर्म करने के विषय में उदासीन रहा करते थे इसलिये कर्मयोग-विषयक ग्रंय नहीं लिखे गये होंगे तो यह आप भी उचित नहीं कहा जा सकता। क्योंकि, उनिपत्माल में और उसके बाद क्षत्रियों में भी जनक और श्रीकृष्ण परीखे ज्ञानी पुरुष हो गये हैं, और आस पश बुद्धिमात्र बामणों ने बड़े बड़े क्षत्रियों का इतिहास भी लिखा है। इन इतिहास को लिखते समय क्या उनके मन में यह विचार न आया होगा; कि जिन प्रसिद्ध पुरुपों का इतिहास हम लिख रहे हैं. उनके चरित्र के ममं या रहस्य को भी प्रगट कर देना चाहिये? इल मर्म यारहस्य को ही कर्मयोग अथवा व्यवहाशास्त्र कहते हैं। और, इसे बतलाने के लिये ही महामारत में स्थान स्थान पर सुत्न धर्म- अधर्म का विवेचन काके, अंत में संपार के धारमा एवं पोपा के लिये कारणीभूत होनेवाले सदाचरण अर्थान् धर्म के मूलतत्वों का विवेचनमोक्ष-मुष्टि को न छोड़ते हुए गीता में किया गया है। अन्यान्य पुराणा में भी ऐसे बहुत से प्रसंग पाये जाते हैं। परन्तु गीता के तेज के सामने अन्य सब विवंचन फीके पड़ जाते हैं, इसी कारण से भगवद्गीता कानयोगशाग्य का प्रधान ग्रंब हो गया है। हमने इस बात का पिछले प्रकागों में विस्तृत विवेचन क्रिया है, कि कर्मयोग या सच्चा स्वल्प क्या है । तथापि जब तक इस बात की तुलना न की जावे, कि गीता में वर्णन किये गये कम-अकर्म के माध्यात्मिक मूल-तत्त्वों से पश्चिमी पंडितों द्वारा प्रतिपादित नीति के मूलतत्र कहाँ तक मिलते हैं, तब तक यह नहीं कहा जा सकता, कि गीताधर्म का निरूपण पूरा हो गया। इस प्रकार तुलना करते समय दोनों मोर के अध्यात्मज्ञान की भी तुलना करनी चाहिये । परन्तु यह बात सर्वमान्य है, कि अब तक पश्चिमी प्राध्या- मिकतान की पहुंच हमारे वेदान्त से अधिक दूर तक नहीं होने पाई है। इसी कारण से पूर्वी और पश्विनी अध्यात्मशायों की तुलना करने की कोई विशेष गावश्य- कता नहीं रह जाती। ऐसी अवस्था में अब केवल इस नीतिगाल की अयवा कर्म. वदान और पश्चिमी तत्वनात की तुलना प्रोफेसर डायमन के The Elements of Metaphysics नामक ग्रन्थ में कई स्थानों में की गई है। इन ग्रन्थ के दूमरे संस्करण के अन्त में .. On the Philosophy of Vedanta " इस विषय पर एक व्याख्यान