20 गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । उनमें सन्यासमार्ग का, अर्थात् शांकर संप्रदाय के उपर्युक्त दोनों भागों का भी, उपदेश और गोता पर लो शांकर भाप्य है उसमें कहा गया है कि गीता का तात्पर्य भी ऐसा ही है (गी. शामा. उपोद्घात और ब्रह्म. सू.शांमा. २. .. ४ देखो)। इसके प्रमाण-स्वरूप में गीता के कुछ वाक्य भी दिये गये हैं जैसे "ज्ञानाप्तिः सर्वकर्माणि भस्मसात्कृते "-अधांत ज्ञानरूपी अप्ति से ही सब कर्म जल कर भस्म हो जाते हैं (गी. १. ३७) और " सर्व कमांखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते " अर्थात् सपका का अंत ज्ञान ही में होता. ई (गी. ४. ३३)। सारांश यह है कि बौद्धधर्म की हार होने पर प्राचीन वैदिक धर्म के जिस विशिष्ट मार्ग को श्रेष्ठ ठहरा कर श्रीशंकराचार्य ने स्थापित किया उसी के अनुकूल गीता का भी अर्थ है, गीता में ज्ञान और कर्म के समुच्चय का प्रतिरादन नहीं किया गया है जैसा कि पहले के टीकाकारों ने कहा है किंतु उसमें (शांकर संप्रदाय के) इसी सिद्धान्त का उपदेश दिया गया है कि कर्म ज्ञान-प्राप्ति का गागा साधन है और सर्व कर्म-सन्यासपूर्वक ज्ञान ही से मोन की प्राप्ति होती है-यही यात वतलाने के लिये शांकर माप्य लिखा गया है। इनके पूर्व यदि एक-आध और भी संन्यास-विषयक टीका लिखी गई हो तो वह इस समय उपलब्ध नहीं है। इस लिये यही कहना पड़ता है कि गीता के प्रवृत्ति-विषयक स्वरूप को निकाल बाहर करके उसे निवृत्तिमार्ग का सांप्रदायिक रूप शांकर भाष्य के द्वारा ही मिला है। श्रीशंकराचार्य के याद इस संप्रदाय के अनुयायी मधुसूदन प्रादि जितने अनेक टीकाकार हो गये हैं उन्होंने इस विषय में बहुधा शंकराचार्य ही का अनुकरण किया है। इसके बाद एक यह अद्भुत विचार उत्पन्न हुआ कि, मद्वैत मत के मूल- भूत महावाक्यों में से “ तत्वमसि " नामक जो महावाक्य छांदोग्योपनिषद् में हैं उसी का विवरण गीता के अठारह अध्यायों में किया गया है। परन्तु इस महावाश्य के पदों के क्रम को बदल कर, पहले 'त्वं' फिर 'तत्' प्रार फिर 'सि' इन पदों को ले कर, इस नये क्रमानुसार प्रत्येक पद के लिये गीता के प्रारंभ से घर छः अध्याय श्रीमगवान् नै निप्पज्ञपात वृद्धि से बाँट दिये हैं! कई लोग समझते "है कि गीता पर जो पैशाच माप्य है वह किली मी संप्रदाय का नहीं ई-बिलकुल स्वतंत्र है-और हनुमान्जी (पवनसुत ) कृत है। परन्तु पयार्य यात ऐसी नहीं है। भागवत के टीकाकार हनुमान पंडित ने ही इस भाष्य को बनाया है और यह सन्यास मार्ग का है। इसमें कई स्थानों पर शांकरभाष्य का ही अर्थ शब्दशः दिया गया है। प्रोफेसर मेक्समूलर को प्रकाशित 'माच्यधर्म-पुस्तकमाला' में स्वर्गवाली काशीनाथ पंत तैलंग कृत भगवट्ठीता का अंग्रेजी अनुवाद भी है। इसकी प्रस्तावना में लिखा है कि इस अनुवाद में श्रीशंकराचार्य और शांकर संभदायी टीकाकारों का, जितना हो सका उतना, अनुसरण किया गया है। गीता और प्रस्थानत्रयी के अन्य अंघों पर जब इस भाँति सांप्रदायिक भाष्य लिखने की रीति प्रचलित हो गई, तब दूसरे संप्रदाय मी इस बात का अनुकरण
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