गीताध्याय-संगति। किया है, उसे भगवान भी किस प्रकार सर्वथैव त्याज्य कहेंगे? संसार के व्यवहार किसी मनुष्य को अंशतः उसके प्रारब्ध-कर्मानुसार प्राप्त हुए जन्मस्वभाव से नीरस या मधुर मालूम होते हैं। और, पहले कह चुके हैं कि ज्ञान हो जाने पर भी प्रारब्ध- कर्म को भोगे बिना छुटकारा नहीं। इसलिये इस प्रारब्ध-कर्मानुसार प्राप्त हुए जन्म- स्वभाव के कारण यदि किसी ज्ञानी पुरुष का जी सांसारिक व्यवहारों से जब जावे और यदि वह संन्यासी हो जाये, तो उसकी निन्दा करने से कोई लाभ नहीं। मात्मज्ञान के द्वारा जिस सिद्ध पुरुष की बुद्धि निःसंग और पवित्र हो गई है, वह इस संसार में चाहे और कुछ करे या न करे, परन्तु इस बात को नहीं भूलना चाहिये कि वह मानवी पुन्धि की शुद्धता की परम सीमा, और विषयों में स्वमा.. वतः लुब्ध होनेवाली इठीली मनोवृत्तियों को तामे में रखने के सामर्थ्य की पराकासा' सब लोगों को प्रत्यक्ष रीति से दिखला देता है । उसका यह कार्य लोक-संग्रह की दृष्टि से भी कुछ छोटा नहीं है। लोगों के मन में संन्यास-धर्म के विषय में जो भादर-पुद्धि विद्यमान है उसका सच्चा कारण यही है और मोक्ष की दृष्टि से यही गीता को भी सम्मत है। परन्तु केवल जन्म-स्वभाव की ओर, अर्थात् प्रारब्ध-कर्म की ही घोर, ध्यान न दे कर यदि शास्त्र की रीति के अनुसार इस बात का विचार किया जावे, कि जिसने पूरी आत्म-स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है उस ज्ञानी पुरुष को इस कर्म-भूमि में किस प्रकार वर्ताव करना चाहिये, तो गीता के अनुसार यह सिद्धान्त करना पड़ता है. कि कर्मत्याग पत गौण है और सृष्टि के प्रारम्भ में मरीचि प्रभृति ने तथा आगे चल कर जनक आदिकों ने जिस कर्मयोग का आचरण किया है उसीको ज्ञानी पुरुष लोक-संग्रह के लिये स्वीकार करे । क्योंकि, अब न्यायतः यही कहना पड़ता है, कि परमेश्वर की निर्माण की हुई सृष्टि को चलाने का काम भी ज्ञानी मनुष्यों को ही करना चाहिये, और, इस मार्ग में ज्ञान सामर्थ्य के साथ ही कर्म-सामर्थ्य का भी विरोध-रहित मेल होने के कारण, यह कर्मयोग केवल सांख्य-मार्ग की अपेक्षा कहीं अधिक योग्यता का निश्चित होता है। सांख्य और कर्मयोग दोनों निष्ठामों में जो मुख्य भेद है उसका उक्त रीति से विचार करने पर सांख्य+निष्कामकर्म कर्मयोग यह समीकरण निष्पक्ष होता है। और वैशंपायन के कथनानुसार गीता-प्रतिपादित प्रवृत्ति प्रधान कर्मयोग के प्रतिपादन में ही सांख्यनिष्ठा के निरूपण का भी सरलता से समावेश हो जाता है (ममा. शां. ३८,५३)। और, इसी कारण से गीता के संन्यासमार्गीय टीकाकारों को यह बतलाने के लिये अच्छा अवसर मिल गया है, कि गीता में उनका सांख्य या संन्यास मार्ग ही प्रतिपादित है। गीता के जिन श्लोकों में कर्म को श्रेयस्कर निश्चित कर, कर्म करने को कहा है, उन श्लोकों की ओर दुर्लक्ष्य करने से, अथवा यह मनगढन्त कह देने से कि वे सब श्लोक अर्थवादात्मक अर्थात आनुषंगिक एवं प्रशंसात्मक है, या किसी अन्य युक्ति से उपर्युक्त समीकरण के निष्काम कर्म ' को उड़ा देने से, उसी समीकरण का सांख्य = कर्मयोग यह रूपान्तर हो जाता है और फिर यह कहने के लिये स्थान मिल जाता है, कि गीता में सांख्य-मार्ग का ही प्रति-
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