गीताध्याय-संगति । ४६५ > हमने पहले ही प्रकरण में यह बतला दिया है, कि गीता के उपसंहार और फल दोनों इसी प्रकार के अर्थात् प्रवृत्ति-प्रधान ही हैं। इसके बाद हमने बतलाया है, कि गीता में अर्जुन को जो उपदेश किया गया है उसमें 'तू युद्ध अर्थात कर्म ही कर ऐसा दपन्यारह बार स्पष्ट रोति से और पाय से तो अनेक बार (अभ्यास) यतलाया है। और हमने यह भी बतलाया है कि संस्कृत पाहित्य में कर्मयोग की उपपत्ति बतलानेवाला गीता के सिवा दूसरा ग्रन्थ नहीं है. इसलिये अभ्यास और अपूर्वता इन दो प्रमाणों से गीता में कर्मयोग झी प्रधानता ही अधिक व्यक्त होती है। मीमांसफा ने अन्य तात्पर्य का निणय करने के लिये जो कसौटिया बतलाई हैं, उन में से अर्थवाद उपपाते ये दोनों शेष रह गई थीं। इनके विषय में पहले पृष्फ पृथक् प्रकरणों में और अब गीता के अध्यायों के क्रमानुसार इस प्रकरण में जो विवंचन किया गया है, उससे यही निष्पा हुप्रा है कि गीता में अकेला 'कर्मयोग' ही प्रतिपाद्य विषय है। इस प्रकार ग्रन्थ-तात्पर्य-निर्णय के मीमांसकों के सप नियमों का उपयोग करने पर यही बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि गीता-अन्य में ज्ञान-मूलक और भक्ति प्रधान कर्मयोगही का प्रतिपादन किश गया है। अब इसमें सन्देश नहीं कि इसके अतिरिक्त शेष सब गीतात्तात्पर्य केवल साम्मारिक हैं। यद्यपि ये मब तात्पर्य साम्प्रदायिक हो, तथापि यह प्रश्न किया जा सकता है, कि कुछ लोगों को गीता में साम्प्रदायिक अर्थ-विशेपतः संन्यास-प्रधान अर्थ- हूदने का मौका कै मिल गया? जब तक इस प्रश्न का भी विचार न हो जायगा, तब तक यह नहा कहा जा सकता कि साम्प्रदायिक अर्थों की बची पूरी हो चुकी। इसलिये अन्न संक्षेप में इसी बात का विचार किया जायगा, कि ये साम्प्रदायिक टीकाकार गीता का संन्यास-प्रधान अर्थ कैसे कर सके और फिर यह प्रकरणा पूरा किया जायगा। हमारे शास्त्रकारों का यह सिद्धान्त है, कि चूकि मनुष्य बुद्धिमान् प्राणी है. इस- लिये पिंड ग्रह्मांड के तत्व को पहचानना ही उसका मुख्य काम या पुरुषार्थ है। और इसीका धर्मशास्त्र में 'मोक्ष' कहते हैं। परन्तु पृश्य सृष्टि के व्यवहारा को और ध्यान देकर शास्त्रों में ही यह प्रतिपादन किया गया है, कि पुरुषार्थ चार प्रकार के है-जैसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । यह पहले ही बतला दिया गया है, कि इस स्थान पर 'धर्म' शब्द का अर्थ व्यावहारिक, सामाजिक और नैतिक धर्म समझना चाहिये। अब पुरुपार्थ को इस प्रकार चतुर्विध मानने पर, यह प्रश्न सहज ही उत्पन हो जाता है, कि पुरुषार्थ के चारों अंग या भाग परस्पर पोप हैं या नहीं? इसलिये हमरगा रहे कि पिण्ड में और ब्रह्मांड में जो तत्व है, इसका ज्ञान हुए चिना मोक्ष नहीं मिलता, फिर वह ज्ञान किसी भी मार्ग से प्रा हो । इस सिद्धान्त के विषय में शाब्दिक मत-भेद भले ही हो, परन्तु तत्वतः कुछ मतभेद नहीं है। निदान गीनाशाख को तो यह सिद्धान्त सर्वच ग्राह्य है। इसी प्रकार गीता को यह तव भी पूर्णतया मान्य है, कि यदि अर्थ और काम, इन दो पुरु- पार्थी बीमाप्ति करना हो तो वे भी नीति-धर्म से ही प्राप्त किये जायें। अब केवल धर्म (अर्थात व्यावहारिक चातुर्वण्र्य-धर्म) और मोक्ष के पारस्परिक सम्बन्ध का गी.र.५९
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