४६४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । लोक और परलोक दोनों का विचार करके ज्ञानवान् एवं शिष्ट जनों ने सांस्य और 'कर्मयोग' नामक जिन दो निष्टाओं को प्रचलित किया है. उन्होंसे गीता के उपदेश का आत्म्म हुआ है। इन दोनों में से पाँचवें अध्याय के निर्णयानुसार जिस कर्मयोग की योन्यता अधिक है, जिस कर्मयोग की सिद्धि के लिय छ अध्याय में पातञ्जलयांग का वर्णन किया गया है. जिस कर्मयोग के प्राचस्प की विधि कावर्णन अगले ग्यारह अध्याया में (७ से १७ तक) पिण्ड-ब्रह्माण्ड-ज्ञानपूर्वक विस्तार से किया गया है और यह कहा गया है कि उस विधि से आचरण करने पर परमेश्वर का पूरा ज्ञान हो जाता है एवं अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है. उसी कर्मयोग का समर्थन अठारहवें अध्याय में अर्थत् अन्त में भी है; और मोक्षल्यो आत्म-कल्याण के आड़े न पार परमेश्वर पंगापूर्वक केवल कम्य-बुद्धि से स्वधमांनुसार लोकसंग्रह के लिये सब कर्मों को करते रहने का जो यह योग या युति है, उसकी श्रेष्टता का यह भगवत्रत उपपादन जव अर्जुन ने सुना, तभी उसने संन्यास लेकर मिया मांगने का अपना पहला विचार छोड़ दिया और अब केवल भगवान के कहने ही से नहीं किन्तु कर्माकर्मशास्त्र का पूर्ण ज्ञान हो जाने के कारण वह स्वयं अपनी इच्छा से युद्ध करने के लिये प्रवृत्त होगया। अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिये ही गीता का प्रारम्भ हुआ है और उसका अन्त भी वैसा ही हुआ है (गी. १८.७३)। गीता के मठारह अध्यायों की जो मंगति ऊपर बतलाई गई है, उसले यह प्रगट हो जायगा कि गीता कुछ कर्म, भक्ति और ज्ञान इन नीन स्वतंत्र निठानों की खिचड़ी नहीं है अथवा वह सूत, रेशम और जरी के वियों कि सिली हुई गुटुंडी नहा है यान् देख पड़ेगा कि सूत. रेशम और ज़री के तानेबाने. को यय स्थान में यंग्यरीनि से एकत्र करके अपयोग नामक मूल्यवान और मनोहर गीतापी वस आदि से अन्न तक अत्यन्त योगयुक्त चित्त से 'कसा वुना गया है । यह सच है कि निरूपण की पद्धति सन्वादात्मक होने के कारण शास्त्रीय पद्धति की अपेक्षा वह जा ढाली है। परतु यदि इस बात पर ध्यान दिया जावे कि सम्बादात्मक निरूपए से शास्त्रीय पद्धति की रुक्षता हट गई है और उसके बदले गीता में सुलभता और प्रेमाल भर गया है, तो शास्त्रीय पद्धति के हेतु अनुमानों की फेवन घुद्धि-ग्राश तया नरस फटकट छुट जाने का शिलीको भी तिजमात्र बुरा न लगेगा । इसी प्रकार यद्यपि गीत:-निरूपण की पद्धति पौराणिक या सम्वादात्मक है, नो भी अन्य-पक्षिण टीम मालकों की सब कसौटियों के अनुसार गीता का तात्पच निश्चित करने में कुछ भी बाधा नहीं होती। यह बात इस ग्रन्थ के कुल विवचन से मानृम हो जायगी। गीता का कारन्म देखा जाय तो माजूम होगा कि अर्जुन ज्ञान-धर्म के अनुसार लड़ाई करने के लिये चला था, जब धर्मा- धर्म की विचिभिसा के चक्कर में पड़ गया, तब उसे वेदान्तशाल के आधार पर प्रवृत्तिप्रधान कर्मयोग-धर्म का उपदेश करने के लिये गीता प्रवृत्त हुई है और
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