पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५०

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विषयप्रवेश श्रीशंकराचार्य घड़े भारी और अलौकिक विद्वान् तथा शानी थे। उन्होंने अपनी दिन्य अलौकिक शकिसे उस समय चारों और फैले हुए जैन और प्रौद्धमतों का खंडन फरके अपना मत मत स्थापित किया; और श्रुति-स्मृति विहित वैदिक धर्म की रता के लिये, भरतखंड की चारों दिशाओं में चार मठ बनवा कर, निवृत्तिमार्ग के वैदिक संन्यास-धर्म को कलियुग में पुनर्जन्म दिया। यह कया किसी से छिपी नहीं है । माप किसी भी धार्मिक संप्रदाय को लीजिये, उसके दो स्वाभाविक विभाग अयश्य झंगेः पहला तत्वज्ञान का और दूसरा याचरण का । पहले में पिंड प्रलाद के विचारों से परमेश्वर के स्वरूप का निर्णय करके मोन का भी शास्त्र- रीत्यनुसार निगाय किया जाता है। दूसरे में इस बात का विवेचन किया जाता है कि मान की प्राप्ति के साधन या उपाय क्या है-मर्थात् इस संसार में मनुष्य को किस तरह बर्ताव करना चाहिये । इनमें से पहली प्रथांव तात्विक दृष्टि से देखने पर श्रीशंकराचार्य का .यन यह है कि:-(१) मैं-तू यानी मनुष्य की पास से दिखने वाला सारा जगत अर्थात सृष्टि के पदायों की सनकता सत्य नहीं है। इन सब में एक ही शुद्ध और नित्य परमहा भरा है और उसी की माया से मनुष्य की इंद्रियों को भितता का मास हुमा करता है (२) मनुष्य का प्रात्मा भी नूलतः परमरूप ही है; और (३) प्रात्मा और परमस की एकता का पूर्ण ज्ञान, अर्थात् अनुभवसि पहचान, हुए बिना कोई भी मोक्ष नहीं पा सकता। इसी को पतवाद कहते हैं । इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि एक शुद्ध-बुद्ध-गित्य-मुक्त परब्रह्म के लिया दूसरी कोई भी स्वांस और सत्य वस्तु नहीं दृष्टिगोचर भिन्नता मानवी ष्टि का श्रम, या माया की उपाधि से होनेवाला श्राभाउ, है माया कुत्र सत्य या स्वतंत्र वस्तु नहीं है वह मिथ्या है। केवल तत्वज्ञान का ही यदि विचार करना हो तो शाफर मत की, इससे अधिक चर्चा करने की मावश्यकता नहीं है । परन्तु शांकर संप्रदाय इतने से ही पूरा नहीं हो जाता । अद्वैत तत्वज्ञान के साथ ही शांकर संगदाय का और भी एक सिद्धान्त है जी माचार-दृष्टि से, पहले ही के समान, महत्व का है। उसका तात्पर्य यह है कि, यपि चित्त-शुद्धि के द्वारा ब्रहात्मय-ज्ञान प्रात करने की योग्यता पाने के लिये स्मृति-ग्रंथों में कहे गये गृहस्थाश्रम के कर्म अत्यंत सावश्यक हैं, तथापि इन कामों का आचरण सदैव न करते रहना चाहिये। क्योंकि उन सब को का त्याग करके अंत में संन्यास लिये बिना मोक्ष नहीं मिल सकता। इसका कारगा यह है कि कर्म और ज्ञान, अंधकार और प्रकाश के समान, परस्पर-विरोधी हैं। इसलिये सब वासनाओं और कर्मों के छूटे बिना नामज्ञान की पूर्णता ही नहीं हो सकती। इसी सिद्धान्त को निवृत्तिमार्ग' कहते हैं। और, सब कर्मों का संन्यास करके ज्ञान ही में निमग्न रहते है इसलिये संन्यासनिष्ठा ' या ज्ञाननिष्ठा ' भी कहते हैं । उपनिषद् और मसूत्र पर शंकराचार्य का जो भाग्य है उसमें यह प्रतिपादन किया गया है कि उक्त ग्रंथों में केवल अद्वैत ज्ञान ही नहीं है, किंतु