पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४९८

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गीताध्याय-संगति । ४५६ में परमेश्वर के प्रत्यक्त स्वरूप को ही प्रधान मान कर यह वर्णन किया गया है कि " में अध्यक्त है, परन्तु मुझे मूर्ख लोग व्यक्त समझते हैं" (७. २४); " यद- तर वेदविदो वदन्ति " (८.११)- जिसे वेदवेत्तागण अपर कहते है। अव्यक्त को ही अक्षर कहते हैं" (८. २१); " मेरे यथार्थ स्वरूप को न पहचान कर मूर्ख लोग मुझे देहधारी मानते हैं" (६. ११) “विद्याओं में प्राध्यात्म-विद्या श्रेष्ठ" (१०.३२); और अर्जुन के कथनानुसार " त्वमवरं सद- सत्तत्परं यत् " (११.३७)। इसी लिये वारहवें अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने पूछा है, कि किस परमेश्वर की-व्यक्त की या अन्यक्त की-उपासना करनी चाहिये ? तब भगवान् ने अपना यह मत प्रदर्शित किया है, कि जिस व्यक्त स्वरूप की उपासना का वर्णन नवें अध्याय में हो चुका है वही सुगम है; और दूसरे अध्याय में स्थित- प्रज्ञ का जैसा वर्णन है वैसा ही परम भगवद्भक्तों की स्थिति का वर्णन करके यह अध्याय पूरा कर दिया है। कुछ लोगों की राय है कि, यद्यपि गीता के कर्म, भक्ति और ज्ञान ये तीन स्वतंत्र भागन भी किये जा सकें, तथापि सातवें अध्याय से ज्ञान-विज्ञान का जो विषय प्रारम्भ हुआ है उसके भक्ति और ज्ञान ये दो पृथक् भाग सहज ही हो जाते हैं। और, वे लोग कहते हैं कि द्वितीय पड़ध्यायी भक्तिप्रधान है । परन्तु कुछ विचार करने के उपरान्त किसीको भी ज्ञात हो जावेगा कि यह मत भी ठीक नहीं है । कारण यह है कि सातवें अध्याय का प्रारम्भ चराचर-सृष्टि के ज्ञान-विज्ञान से किया गया है, न कि भक्ति से । और, यदि कहा जाय कि बारहवं अध्याय में भक्ति का वर्णन पूरा हो गया है, तो हम देखते हैं कि अगले अध्यायों में और ठौर पर भक्ति के विषय में वारम्बार यह उपदेश किया गया है, कि जो बुद्धि के द्वारा मेरे स्वरूप को नहीं जान सकता, वह श्रद्धापूर्वक "दूसरों के वचनों पर विश्वास रख कर मेरा ध्यान करे" (गी. १३. २५), "जो मेरी अव्यभिचारिणी भक्ति करता है वही प्रम-भूत होता है" (१४. २६), जो मुझे ही पुरुषो- तम जानता है वह मेरी ही भक्ति करता है" (गी. १५. १६); और अन्त में अठारहवें अध्याय में पुनः भक्ति का ही इस प्रकार उपदेश किया है, कि “ सब धर्मों को छोड़ कर तू मुझको भज" (१८.६६)। इसलिये हम यह नहीं कह सकते कि केवल दूसरी पड़ध्यायी ही में भक्ति का उपदेश है । इसी प्रकार, यदि भगवान् का यह अभिप्राय होता कि ज्ञान से भक्ति भिन्न है, तो चौथे अध्याय में ज्ञान की प्रस्तावना करके (४. ३४-३७), सातवें अध्याय के अर्थात् उपर्युक्त भादेपकों के मतानुसार भक्तिप्रधान पड़ध्यायी के प्रारम्भ में, भगवान् ने यह न कहा होता कि अब मैं तुझे यही ज्ञान और विज्ञान ' बतलाता हूँ (७.२)। यह सच है, कि इसके आगे के नवे अध्याय में राजविद्या और राजगुख प्रांत प्रत्यक्षावगम्य भक्तिमार्ग बतलाया है। परन्तु अध्याय के प्रारम्भ में ही कह दिया है कि तुझे विज्ञानसहित ज्ञान बतलाता हूँ' (६.१)। इससे स्पष्ट प्रगट