गीताध्याय-संगति। मय्यासक्तमनाः पार्य योगं युजन् मदानपः । असंशयं समग्रं मां यथा शास्यसि तच्छृणु ॥ "हे पायं! मुझमें चित्त को स्थिर करके और मेरा मात्रय लेकर योग यानी कर्म- योग का आचरण करते समय, 'यथा' अर्थात् जिस रीति से मुझे सन्देह-रहित पूर्णतया जान सकेगा, यह (रीति तुझे यतलाता हूँ) सुन" (गी. ७.१); और इसीको आगे के श्लोक में ज्ञान-विज्ञान' कहा है (गी. ७. २)। इनमें से पहले प्रधांत ऊपर दिये गये “ भय्यासकमनाः " शोक में 'योग युजन् - प्रांत 'कर्मयोग का आचरणा करते हुए ये पर अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। परन्तु किसी भी टीकाकार ने इनकी प्रोर विशेष ध्यान नहीं दिया है। योग' अर्थात् यही कर्मयोग ६ कि जिसका वर्णन पहले छः अध्यायों में किया जा चुका है और इस कर्मयोग का भाचरा करते हुए जिस प्रकार, विधि, या रीति से भग- वान् का पूरा ज्ञान हो जायगा, उस रीति या विधि का वर्णन अय यानी सातवें घ्याय आरम्भ करता है-यही इस श्लोक का अर्थ है। अर्थात, पहले छः पाध्यायों का अगले प्रध्यायों से सम्बन्ध बतलाने के लिये यह श्लोक जानबूझकर सातवें अध्याय के प्रारम्भ में रखा गया है । इसलिये, इस श्लोक के अर्थ की ओर ध्यान न देकर, यह कहना बिलकुल अनुचित है, कि 'पहले छः अध्यायों के बाद भति-निष्ठा का स्वतंत्र रीति से वर्णन किया गया है। केवल इतना ही नहीं वरन् यह भी कहा जा सकता है कि इस श्लोक में योग युजन' पद जानबूझकर इसी लिये रखे गये हैं कि जिसमें कोई ऐसा विपरीत अर्थ न करने पावे गीता के पहले पाँच अध्यायों में कर्म की आवश्यकता पतलाकर सांस्त्रमार्ग की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ कहा गया है और इसके पाद छठे अध्याय में पातमलयोग के साधनों का वर्णन किया गया है जो कर्मयोग में इन्द्रिय-निग्रह के लिये आवश्यक है। परन्तु इतने ही से कर्मयोग का वर्णन पूरा नहीं हो जाता । इन्द्रिय-निग्रह मानो कर्मेंद्रियों से एफ प्रकार की फसरत कराना है। यह सच है कि इस अभ्यास के द्वारा इन्द्रियों को हम अपने अधीन रख सकते हैं। परन्तु यदि मनुष्य की वासना ही पुरी होगी तो इन्द्रियों को काबू में रखने से कुछ भी लाभ नहीं होगा। क्योंकि देखा जाता है कि दुष्ट वासनाओं के कारण कुछ लोग इसी इन्द्रिय-निग्रहरूप सिद्धि का जारण- मारगा प्रादि दुष्कर्मों में उपयोग किया करते हैं। इसलिये छठे अध्याय ही में कहा है, कि इन्द्रिय-निग्रह के साथ ही वासना भी सर्वभूतस्थमात्मानं सर्व- भूतानि चात्मनि' की नाई शुद्ध हो जानी चाहिये (गी. ६.२६) और ब्रह्मात्मैक्य. रूप परमेश्वर के शुद्ध स्वरूप की पहचान हुए बिना वासना की इस प्रकार शुद्धता होना असम्भव है । तात्पर्य यह है, कि जो इन्द्रिय-निग्रह कर्मयोग के लिये पावश्यक ई वह भले ही प्राप्त हो जाय , परन्तु 'रस' पर्याद विषयों की चाह, मन में ज्यों की त्यों बनी ही रहती है। इस रस अथवा विषयवासना का नाश करने के लिये परमेश्वर-सम्बन्धी पूर्ण ज्ञान की ही आवश्यकता है। यह बात गीता
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