४५२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । रख केवल कर्तव्य समझकर संसार के प्रात कम करता रहता है, वही सच्चा योगी और सच्चा संन्यासी है जो मनुष्य अग्निहोत्र प्रादि कमी का त्याग कर चुपचाप बैठ रहे वह सच्चा संन्यासी नहीं है। इसके बाद भगवान् ने धात्म-स्वतंत्रता का इस प्रकार वर्णन किया है, कि कर्मयोग-मार्ग में बुद्धि को स्थिर करने के लिये इन्द्रिय- निग्रह-रूपी जो कर्म करना पड़ता है उसे स्वयं आप ही करे; यदि कोई ऐसा न करे तो किसी दूसरे पर उसका दोपारोपण नहीं किया जा सकता। इसके आगे इस अध्याय में इन्द्रिय-निग्रहरूपी योग की साधना का, पातंजलयोग की दृष्टि से, मुख्यतः वर्णन किया गया है। परन्तु यम-नियम-आसन-प्राणायाम आदि साधनों के द्वारा यद्यपि इन्द्रियों का निग्रह किया जावे तो भी उतने से ही काम नहीं चलता। इस लिये आत्मस्यज्ञान की भी आवश्यकता के विपय में इसी अध्याय में कहा गया है, कि आगे उस पुरुष की वृत्ति 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ' अथवा 'यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च माय पश्यति' (६. २९, ३०) इस प्रकार सब प्राणियों में सम हो जानी चाहिये । इतने में अर्जुन ने यह शंका उपस्थित को, कि यदि यह साम्यबुद्धिरूपी योग एक जन्म में सिद्ध न हो तो फिर दूसरे जन्म में भी आरम्भ ही से उसका अभ्यास करना होगा और फिर भी वही दशा होगी- और इस प्रकार यदि यह चक्र हमेशा चलता ही रहे तो मनुष्य को इस मार्ग के द्वारा सद्गति प्राप्त होना असम्भव है। इस शंका का निवारण करने के लिये भग- वान् ने पहले यह कहा है, कि योग-मागे में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता, पहले जन्म के संस्कार शेप रह जाते हैं और उनकी सहायता से दूसरे जन्म में अधिक अभ्यास होता है तथा क्रम क्रम से अन्त में सिद्धि मिल जाती है। इतना कहकर भगवान् ने इस अध्याय के अन्त में अर्जुन को पुनः यह निश्चित और सट उपदेश किया है, कि कर्म-योग-मार्ग ही श्रेष्ट और क्रमशः सुसाध्य है, इसलिये केवल (अर्थात् फलाशा को न छोड़ते हुए) कर्म करना, तपश्चर्या करना, ज्ञान के द्वारा कर्म-संन्यास करना इत्यादि सव मागों को छोड़ दे और तू योगी हो जा-अर्थात् निष्काम कर्मयोगमागे का आचरण करने लग। कुछ लोगों का मत है, कि यहाँ अर्थात् पहले छः अध्यायों में कर्मयोग का विवेचन पूरा हो गया। इसके आगे ज्ञान और भक्ति को स्वतंत्र' निष्ठा मान कर भगवान् ने उनका वर्णन किया है-अर्थात् ये दोनों निष्ठाएँ परस्पर निरपेक्ष या कर्म- योग की ही बराबरी की, परन्तु उससे पृथक् और उसके बदले विकल्प के नाते से आचरणीय है सातवें अध्याय से वारहवें अध्याय तक भक्ति का और आगे शेष छः अध्यायों में ज्ञान का वर्णन किया गया है। और इस प्रकार अठारह अध्यायों के विभाग करने से कर्म, भक्ति और ज्ञान में से प्रत्येक के हिस्से में छः छः अध्याय आते हैं तथा गीता के समान भाग हो जाते हैं। परन्तु यह मत ठीक नहीं है। पाँचवें अध्याय के प्रारम्भ के श्लोकों से स्पष्ट मालूम हो जाता है, कि जब अर्जुन की मुख्य शंका यही थी कि " मैं सांस्यनिष्ठा के अनुसार युद्ध करना छोड़ दूं, या
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