गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । का मतैक्य करने ही के उद्देश से बनाये गये हैं, इसलिये उनमें भी वैदिक प्रवृत्तिमाग का विस्तृत विवेचन कहीं भी नहीं किया गया है। इसी लिये उपयुक्त कथनानुसार जय प्रवृत्तिमार्ग-प्रतिपादक भगवद्गीता ने वैदिक धर्म की तत्वज्ञानसंबंधी इस न्यूनता की पूर्ति पहले पहल की, तव उपनिषदों और वेदान्तसूत्रों के मार्मिक तत्वज्ञान की पूर्णता करनेवाला यह भगवद्गीता ग्रन्थ भी, उन्हीं के समान, सर्वमान्य और प्रमाणभूत हो गया। और, अन्त में, उपनिषदों, वेदान्तसूत्रों और भगवद्गीता का प्रस्थानत्रयी' नाम पड़ा। प्रस्थानत्रयी' का यह अर्थ है कि उसमें वैदिक धर्म के आधारभूत तीन मुख्य प्रन्य हैं जिनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों का नियमानुसार तथा तात्विक विवेचन किया गया है। इस तरह प्रस्थानत्रयी मैं गीता के गिने जाने पर और प्रस्थानत्रयी का दिनों दिन अधिक काधिक प्रचार होने पर वैदिक धर्म के लोग उन मतों और संप्रदायों को गौण अथवा अग्राह्य मानने लगे, जिनका समावेश उक्त तीन ग्रन्थों में नहीं किया जा सकता था। परिणाम यह हुआ कि बौद्धधर्म के पतन के बाद वैदिक धर्म के जो जो सम्प्रदाय (अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्धाद्वैत प्रादि) हिंदुस्थान में प्रचलित हुए; उनमें से प्रत्येक संप्रदाय के प्रवर्तक प्राचार्य को, प्रस्थानत्रयी के तीनों भागों पर (अर्थात् भगवद्गीता पर भी) भाप्य लिख कर, यह सिद्ध कर दिखाने की आवश्यकता हुई कि, इन सब सम्प्रदायों के जारी होने के पहले ही जो तीन धर्मग्रन्थ' प्रमाण समझे जाते थे, उन्हीं के आधार पर हमारा सम्प्रदाय स्थापित हुआ है और अन्य संप्रदाय इन धर्मग्रन्यों के अनुसार नहीं है। ऐसा करने का कारण यही है कि यदि कोई प्राचार्य यह स्वीकार कर लेते कि अन्य संप्रदाय भी प्रमाणभूत धर्मग्रन्थों के आधार पर स्थापित हुए हैं तो उनके संप्रदाय का महत्त्व घट जाता -और, ऐसा करना किसी भी संप्रदाय को इष्ट नहीं था। सांप्रदायिक दृष्टि से प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखने की यह रीति जय चल पड़ी, तब भिन्न भिन्न पंडित अपने अपने संप्रदायों के माप्यों के आधार पर टीकाएँ लिखने लगे। यह टीका उसी संप्रदाय के लोगों को अधिक मान्य हुआ करती थी जिसके भाग्य के अनुसार वह लिखी जाती थी। इस समय गीता पर जितने भाग्य और जितनी टीकाएँ उपलब्ध हैं उनमें से प्रायः सब इसी सांप्रदायिक रीति से लिखी गई हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि यद्यपि मूल गीता में एक ही अर्थ सुबोध रीति से प्रतिपादित हुआ है तथापि गीता भिन्न भिन्न संप्रदायों की समर्थक समझी जाने लगी। इन सव संप्रदायों में ले श्रीशंकराचार्य का संप्रदाय अति प्राचीन है और तत्वज्ञान की दृष्टि से वही हिन्दुस्थान में सब से अधिक मान्य भी हुआ है। श्रीमदाद्यशंकराचार्य का जन्म संवत् ८५ (शक७१०) में हुआ था और बत्तीसवें वर्ष में उन्होंने गुहा प्रवेश किया (संवत् ८४५ से ८७७)। यह वात आजकल निश्चित हो चुकी है; परन्तु हमारे मत से श्रीमदादशंकराचार्य का सम्म और भी इसके सौ वर्ष पूर्व समझना चाहिये। इसके आधार के लिये परिशिष्ट प्रकरण देखो। .
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