गोताध्याय-संगति। ४४६ सर्वथा छूट जाना मसम्भव है । जब तक यह देहधारी है तब तक प्रकृति स्वभा- वतः उसले का रायगी थी, और जब कि शमति के ये कम छूटते ही नहीं हैं, तब तो इन्द्रिय-निया के द्वारा बुद्धि को स्पिर नार सन करके केवल कौन्द्रियों से ही अपने सब कर्तव्य-कानों को करते रहना प्राधिक श्रेयस्कर है । इसलिये तु कर्म कर चदि का नहीं करेगा नो नुझे खाने तक पो न मिलेगा (३.३८)। ईश्वर ने ही को उत्पता किया है। मनुष्य ने नहीं । जिस समय महादेव ने मुष्टि और प्रजा को उत्सम किया, उसी समय उसने 'यह' को भी उत्पन्न किया था और उसने प्रजा से यह कह दिया था, कि यज्ञ के द्वारा तुम अपनी लम्रद्धि कर लो।जव कि यह पज्ञ पिना कर्म किये सिद्ध नहीं होता, तो अपक्ष को फर्म ही कहना चाहिये । इसलिये यह सिद्ध होता है कि मनुष्य प्रार कर्म साथ ही साथ उत्पत हुए हैं। परन्तु ये काम केवल यज्ञ के लिये ही हैं और यज्ञ करना मनुष्य का कर्तव्य है, इस- लिए इन कमी के फल मनुष्य को बन्धन में डालनेवाले नहीं होते । अय यह सच है कि जो मनुष्य पूर्ण ज्ञानी हो गया, स्वयं उसके लिये कोई भी कर्तव्य शेप नहीं रहता; सौर. न लोगों से ही उसका कुछ 'प्रटपा रहता है । परन्तु इतने ही से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि पान ना करो; क्योंकि कर्म करने से किसीको भी छुटकारा न मिलने के कारण यही बनुमान करना पड़ता है, कि यदि स्वार्थ के लिये न हो तो भी अब उसी काम को निष्काम-मुद्धि से लोक-संग्रह के लिये अवश्य करना चाहिये ( ३.१७. १६) ! इन्हीं बातों पर ध्यान देकर प्राचीन काल में जनक प्रादि ज्ञानी पुरषों ने वान किये हैं और मैं भी कर रहा हूँ। इसके अतिरिक्त यह भी हमरगा रहे, किसानी पुरुषों के कर्तव्यों में 'लोक-संग्रह करना' एक मुख्य फरच्या प्रयांत अपने पतीप से लोगों को सन्मार्ग की शिक्षा देना और उन्हें उाति के मार्ग में लगा देना, ज्ञानी पुरुपक्षी का कर्तव्य है । मनुष्य कितना ही ज्ञानवान् क्यों न हो जाये, परनु प्रकृति के व्यवहारों से उसका छुटकारा नहीं है। इसलिये कर्मों को छोड़ना तो दूर ही रहा, परन्तु कर्तव्य समझ कर स्वधर्मानुसार कम करते रहना और-सावश्यकता होने पर उसी में मर जाना भी श्रेयस्कर है (३. ३०-३५);--इस प्रकार तीसरे अध्याय में भगवान् ने उपदेश दिया है। भग- वान् ने इस प्रकार प्रकृति को सय कामों का कर्तृत्व दे दिया। यह देख अर्जुन ने प्रश्न किया कि मनुष्य, इच्छा न रहने पर भी पाप क्यों करता है? तय भगवान ने यह उसर देकर अध्याय समाप्त कर दिया है कि काम-क्रोध प्रादि विकार बलात्कार से मन को नष्ट कर देते हैं। प्रतएव अपनी इन्द्रियों का निग्रह फरके प्रत्येक मनुष्य को अपना मन अपने अधीन रखना चाहिये । सारांश, स्थित-प्रज्ञ की नाई बुद्धि की समता हो जाने पर भी कर्म से किडी का छुटकारा नहीं, अतएव यदि स्वार्थ के लिये न हो तो भी लोक-संग्रह के लिये निष्काम अद्धि से कर्म करते ही रहना चाहिये इस प्रकार कर्म-योग की आवश्यकता सिद्ध की गई है और भनिमार्ग के परमेश्वरापणपूर्वक कर्म करने के इस तत्व का भी, कि मुझे सय कर्म अपंगा कर (३.३०,३३), इसी अध्याय में प्रथम उल्लेख हो गया है। गी.र.५७ .
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