गीताध्याय-संगति। ४४७ करनेवाले शूर पुरुष एक क्षण में जा पहुँचते हैं-अर्थात् न केवल तपस्वियों को या संन्यासियों को प्ररन् यज्ञ-याग आदि करनेवाले दीक्षितों को भी जो गति प्राप्त होती है, वही शुन्ध में मरनेवाले ननिय को भी मिलती है (कौटि. १८० ३. १५०-१५२; और मभा. शां.६८-१२० देखो)। ननिय को स्वर्ग में जाने के लिये युद्ध के समान दूसरा दरवाजा. कंचित दी गुला मिलता है युद्ध में मरने से स्वर्ग और जय प्राप्त करने से पृथ्वी का राज्य मिलेगा" (२.३२, ३७)-गीता के इस उपदेश का तात्पर्य भी वही है । इसलिये सांख्यमार्ग के अनुसार यह भी प्रतिपादन किया जा सकता है, कि पया संन्यास लेना और फ्या युद्ध करना, दोनों से एक ही फल की प्राप्ति होती है । इस मार्ग के युक्तिवाद से यह निश्चितार्थ पूर्गा रीति से सिद्ध नहीं होता, कि . मी क्षी, युद्ध करना ही चाहिये।' सांख्यमार्ग में जो यह न्यूनता या दोप है, उसे ध्यान में रख भागे भगवान् ने कर्म-योग-मार्ग का प्रतिपादन प्रारम्भ किया है। सौर गीता के अन्तिम अध्याय के अन्त तक इसी कागयोग फा-अर्थात कमी को करना ही चाहिये और मोक्ष में इनसे कोई याधा नहीं होती किन्तु इन्हें करते रहने से भी मोक्ष प्राप्त होता है, इसका-भिता भिस प्रमाण देकर शंका- निवृत्ति-पूर्वक समर्थन किया है। इस कर्मयोग का मुख्य तस्त्र यह है कि किसी भी कर्म को भला या पुरा कहने के लिये उस कर्म के बारा परिणामों की अपेक्षा पहले यह देख लेना चाहिये कि किसी की चासनात्मक युधि शुद्ध है अथवा प्रशुद्ध (गी. २. ४८) । परन्तु पासना की शुद्धता या अशुद्धता का निर्गय भी तो पाखिर व्यवसायात्मक बुद्धि ही करती है। इसलिये जब तक निर्णय करनेवाली युतीन्द्रिय स्थिर और शान्त न होगी, तब तक पालना भी शुन्छ या सम नहीं हो सकती। इसी लिये उसके साथ यह भी कहा है कि वासनात्मक सुवि को शुद्ध करने के लिये प्रथम समाधि के योग से व्यवसायात्मक युद्धीन्द्रिय को भी स्थिर कर लेना चाहिये (गी. २. ४१) । संपार के सामान्य व्यवहारों की ओर देखने से प्रतीत होता है, कि यहुसेरे मनुष्य स्वर्गादि भिन्न भिज्ञ काम्य सुखों की प्राप्ति के लिये ही यज्ञ-यागादिक वैदिक काम्य को की झमट में पढ़े रहते हैं। इससे उनकी युति, कभी एक फल की प्राप्ति में कभी दूसरे ही फल की प्राप्ति में, अर्थात स्वार्थ ही में, निमम रहती है और सदा बदलनेवाली यानी चंचल हो जाती है । ऐले मनुष्यों को स्वर्ग-सुखादिक धनित्व-फल की अपेक्षा अधिक महाय का अर्थात् मोक्ष-रूपी नित्य मुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता इसी लिय अर्जुन को फर्म-योग-मार्ग का रहस्य इस प्रकार घतलाया गया है कि, वैदिक कमी के काम्य झगलों को छोड़ दे और निष्काम-गुन्द्रि से कर्म करना सीख तेरा अधिकार चल कर्म करने भर का ही कर्म के फल की प्राति अथवा अप्राप्ति तेरे अधिकार की बात नहीं है (२.१७); ईश्वर को ही फल-दाता मान कर जय इस समबुद्धि सेकि कर्म का फल मिले अथवा न मिले, दोनों समान
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