४४६ गीतारहस्य भयवा कर्मयोगशास्त्र । रहना योग अथवा कर्मयोग है। अर्जुन से भगवान प्रथम यह कहते हैं, कि सांख्य- मार्ग के अध्यात्मज्ञानानुसार मात्मा अविनाशी और अमर है, इसलिये तेरी यह • समझ गलत है कि " मैं भीष्म द्रोण आदि को मारूँगा" क्योंकि न तो प्रामा मरता है और न मारता ही है। जिस प्रकार मनुष्य अपने वस्त्र बदलता है, उसी प्रकार आत्मा एक देह को छोड़कर दूसरी देह में चला जाता है। परन्तु इसलिये उसे मृत मानकर शोक करना उचित नहीं। अच्छा; मान लिया कि “ मैं मालगा। यह भ्रम है, तब तू कहेगा कि युद्ध ही क्यों करना चाहिये ? तो इसका उत्तर यह है कि शास्त्रतः प्राप्त हुए युद्ध से परावृत्त न होना ही क्षत्रियों का धर्म है और जब कि इस सांख्यमार्ग में प्रथमतः वर्णाश्रम-विहित कर्म करना ही श्रेयस्कर माना जाता है, तब यदि तू वैसा न करेगा तो लोग तेरी निन्दा करेंगे-अधिक क्या कहें, युद्ध में मरना ही क्षत्रियों का धर्म है। फिर व्यर्थ शोक क्यों करता है ? ' मैं मारूंगा और वह मरेगा यह केवल कर्म-दृष्टि है-इसे चोड़ दे तू अपना प्रवाह पतित कार्य ऐसी बुद्धि से करता चला जा कि मैं केवल अपना स्वधर्म कर रहा हूँ इससे तुझे कुछ भी पाप नहीं लगेगा? यह उपदेश सांख्यमानानुसार हुआ। परन्तु चित्त की शुद्धता के लिये प्रथमतः कर्म करके चित्त-शुद्धि हो जाने पर अन्त में सब कर्मों को छोड़ संन्यास लेना ही यदि इल मार्ग के अनुसार श्रेष्ठ माना जाता है, तो यह शक्षा रही जाती है कि उपरति होते ही युद्ध को छोड़ (यदि हो सके तो) संन्यास ले लेना क्या अच्छा नहीं है । केवल इतना कह देने से काम नहीं चलता, कि मनु आदि स्मृतिकारों की आज्ञा है कि गृहस्याश्रम के बाद फिर कहीं बुढ़ापे में संन्यास लेना चाहिये, युवावस्था में तो गृहस्थाश्रमी ही होना चाहिये । क्योंकि किसी भी समय यदि 'संन्यास लेना ही श्रेष्ट है, तो ज्यों ही संसार से जी हटा त्यों ही तनिक भी देर न कर, संन्यास लेना उचित है और इसी हेतु से उपनिपदों में भी ऐसे वचन पाये जाते हैं कि " ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् गृहाद्वा वनाद्वा" (जा. ४) । संन्यास लेने से जो गति प्राप्त होगी, वही युद्ध-क्षेत्र में मरने से क्षत्रिय को प्राप्त होती है । महाभारत में द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमंडलभेदिनौ । परिवाड् यागयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः॥ अर्थात्-" हे पुरुपन्यान ! सूर्यमंडल को पारकर ब्रह्मलोक को जानेवाले केवल दो ही पुरुष हैं। एक तो योगयुक्त संन्यासी और दूसरा युद्ध में लड़ कर मर जानेवाला वीर" (उधो. ३२.६५)। इसी अर्थ का एक श्लोक कौटिल्य के,यानी चाणक्य के, अर्थशास्त्र में भी है:- यान् यज्ञसंप्रैस्तपसा च विप्राः स्वगैषिणः पात्रचयैश्च यांति । क्षणेन तानप्यतियांति शूराः प्राणान् सुयुद्धषु परित्यजन्तः ॥ "स्वर्ग की इच्छा करनेवाले ब्राह्मण अनेक यज्ञों से, यज्ञपानी से और तपों से जिस लोक में जाते हैं, उस लोक के भी आगे के लोक में युद्ध में प्राण अर्पण कहा है:-
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