गीताध्याय-संगति । ४४५ कारण ले संसार से उकता गपे तो ये दुःलित हो इस संसार को छोड़ जंगल में चले गये. सौर उन लोगों ने पूरी सिद्धि भी प्राक्ष कर ली है। इसी प्रकार अर्जुन की भीदशा हुई होती । का तो कभी हो ही नहीं लगता था, कि संन्यास लेने के समय वस्त्रों कोगेरा रंग देने के लिये मुडी भर लाल मिही, या भगवनाम संकीर्तन के लिये झांझ, मृदंग प्रादि सामग्री, सारे कुरुक्षेत्र में भी न मिलती! परन्तु ऐला पुत्र भी नहीं किया उलटा दसरे अध्याय के प्रारम्भ में ही श्रीकृष्ण ने भगंग से कहा कि, " अरे ! मुझे यह दुर्बुद्धि (कशमल) कहीं से जूझ पड़ी? यह नामर्दो (कन्य) मुझे शोभा नहीं देनी ! यह तेरी नीति को धूलि में मिला देगी ! इसलिये हरू दुर्वलता का त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा हो जा!" परन्तु अन ने बि.सी अबला की तरह अपना यह रोना जारी हो रखा। वह अत्यन्त दीन-हीन पाणी से चोला-"मैं भीम यादि महात्मानों को कैसे मारू? मेरा मन इसी संशय में चार ला रहा है कि मरना भला है, या मारना? इसालेये मुझे यह बतलाये कि इन दोनों में कौनसा धर्म श्रेयस्कर है: मैं तुम्हारी शरण में पाया है। "अर्जुन की इन यातों को सुनकर श्री जान गये कि अब यह माया के चगुल में फंस गया है । इसलिये ज़रा इंसकर उन्होंने उसे " अशोच्यानन्वशो- पस्त्वं" इत्यादि ज्ञान बतलाना भारम्भ किया। अर्जुन ज्ञानी पुरुप के साश यांव करना चाहता था, और यह कर्म-संन्यास की बात भी फरने लग गया था । इसलिये, संसार में ज्ञानी पुरुप के आचरण के जो दो पंथ देख पढ़ते हैं-अधांत, कर्म करना' और ' को घोड़ना'--यहीं से भगवान् ने सपने उपदेश का प्रारम्भ किया है और मन को पहली बात यही यतलाई है, कि इन दो पन्या या निरामों में से तु किसीको भी ले, परस्तु न भूल कर रहा है। इसके बाद, जिस शान या सांस्यनिष्ठा के प्राधार पर, असुन फर्म-संन्यास की यात करने लगा था, उसी लाल्यानिटा के आधार पर, श्रीकृष्ण ने प्रथम 'पा तेऽभिहिता मुद्धिः' (गी. २.११-३९)तक उपदेश किया है और फिर अध्याय के अन्त तक फर्मयोगमार्ग के अनुसार अर्जुन को यही घतलाया है, कि युद्ध ही तेरा सच्चा फर्तव्य है। यदिपा तेऽभिहिता सांस्ये ' सरीखा श्लोक प्रशोच्यानन्वशोचस्वं" लोक के पहले प्राता, तो यही प्रर्थ और भी अधिक व्यक हो गया होता । परन्तु सम्भाषण के प्रवाह में, सांख्यमार्ग का प्रतिपादन होजाने पर, वह इस रूप में प्राया है-" यह तो सांख्य मार्ग के अनुसार प्रतिपादन हुन्ना; अय योगमार्ग के अनुसार प्रतिपादन करता हूँ।" कुछ भी हो, परन्तु अर्थ एकही है। हमने मारहवें प्रकरण में साल्य (या संन्यास) और योग (या कर्मयोग) का भेद पहले ही स्पष्ट करके पतला दिया है। इसलिये उसकी पुनरावृत्ति न कर फेवल इतना ही कहे देते हैं, कि चित्त की शुद्धता के लिये स्वधमानुपार वाश्रिमविहित कर्म करके ज्ञान- भाति होने पर मोक्ष के लिये अन्त में सब फमो को छोड़ संन्यास लेना सांख्य. मार्ग है और कमी का कभी त्याग न कर अन्त तक उन्हें निकाम-धुद्धि से करते
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