४४२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। गीता-निरूपण के स्वरूप के द्योतक " श्रीकृष्णार्जुनसम्बादे " इन शब्दों का उपयोग किया गया है। इस निरूपण में और — शास्त्रीय निरूपण में जो भेद है, उसको स्पष्टता से बतलाने के लिये हमने सन्वादात्मक निरूपण को ही पौराणिक' नाम दिया है। सात सौ श्लोकों के इस सम्बादात्मक अथवा पौराणिक निरूपण में धर्म जैसे व्यापक शब्द में शामिल होनेवाले सभी विषयों का विस्तारपूर्वक विवेचन कभी हो ही नहीं सकता । परन्तु आश्चर्य की बात है कि गीता में जो अनेक विषय उपलब्ध होते हैं, उनका ही संग्रह (संक्षेप में ही क्यों न हो) अविरोध से कैसे किया जा सका! इस बात से गीताकार की अलौकिक शकि व्यक्त होती है और अनुगीता के प्रारम्भ में जो यह कहा गहा है, कि गीता का उपदेश अत्यन्त योगयुक्त चित्त से बतलाया गया है, इसकी सत्यता की प्रतीति भी हो जाती है । अर्जुन को जो जो विषय पहले से ही मालूम थे, उन्हें फिर से विस्तारपूर्वक कहने की कोई आवश्यकता नहीं थी। उसका मुख्य प्रश्न तो यही था, कि मैं लड़ाई का घोर जय करूं या न करूं, और करूँ भी तो किस प्रकार करू! जब श्रीकृष्ण अपने उत्तर में एकाध युक्ति बतलाते थे तब अर्जुन उसपर कुछ न कुछ प्रादेप किया करता था। इस प्रकार के प्रश्नोत्तररूपी सम्वाद में गोता का विवेचन स्वभाव ही से कहीं संक्षिप्त और कहीं द्विरुक्त हो गया है । उदाहरणार्थ, त्रिगुणात्मक प्रकृति के फैलाव का वर्णन कुछ थोड़े मेद से दो जगह है (गी. अ. ७ और १४); और स्थितप्रज्ञ, भगवद्गत, त्रिगुणातीत, तथा ब्रह्ममूत इत्यादि की स्थिति का वर्णन एकसा होने पर भी, भिन्न भिन्न दृष्टियों से प्रत्येक प्रसंग पर बार बार किया गया है। इसके विपरीत यदि अर्थ और काम धर्म से विभक न हों तो वे ग्राह्य है' इस तत्व का दिग्दर्शन गीता में केवल “ धर्माविरुद्धःकामोऽस्मि " (७.११) इसी एक वाक्य में कर दिया गया है। इसका परिणाम यह होता है। कि यद्यपि गीता में सब विषयों का समावेश किया गया है, तथापि गीता पढ़ते समय उन लोगों के मन में कुछ गड़गड़ सी हो जाती है, जो श्रौतधर्म, स्मार्तधर्म, भागवतधर्म, सांख्यशास्त्र, पूर्वमीमांसा, वेदान्त, कर्म-विपाक इत्यादि के टन प्राचीन सिद्धान्तों की परम्परा से परिचित नहीं है, कि जिनके आधार पर गीता के ज्ञान का निरूपण किया गया है। और जब गीता के प्रतिपादन की रीति ठीक ठीक ध्यान में नहीं आती, तब वे लोग कहने लगते हैं कि गोता मानो वाजीगर की झोली है, अथवा शास्त्रीय पद्धति के प्रचार के पूर्व गीता की रचना हुई होगी, इसालेये उसमें और टौर पर अधूरापन और विरोध देख पड़ता है, अथवा गीता का ज्ञान ही हमारी बुद्धि के लिये. अगम्य है ! संशय को हटाने के लिये यदि टीकाओं का अव- लोकन किया जाय, तो उनसे भी कुछ लाभ नहीं होता; क्योंकि वे बहुधा मिन्न भिन्न सम्प्रदायानुलार बनी हैं ! इसलिये टीकाकारों के मतों के परस्पर विरोधों की एक-वाक्यता करना असम्भव सा हो जाता है और पहनेवाले का मन अधिकाधिक घबराने लगता है। इस प्रकार के श्रम में पड़े हुए कई लुप्रबुद्ध पाठकों को हमने
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४८१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।