गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । उपनिषद्, या वेदान्तसूत्र को देख तो मालूम होगा, कि उनमें आत-यह-पाग आदि की अथवा कमंन्यास-पूर्दक नेति नेति' स्वल्पी परब्रह्म को ही मी पड़ी है। और अन्त में यही निर्णय किया है, कि स्वर्गप्राति के लिये साधनीभूत झोनवाले श्रोत-यज्ञ-यागादिक सनं करने का प्रयवा मोन-प्राति के लिये आवश्यक उपनिपदादि वेदाध्ययन करने का अधिकार भी पहले तीन ही वर्गों के पुरुषों के (क्यू. १.३.३४-३८)। इन ग्रंथों में इस यात ब्र विचार नहीं किया गया, कि तीन चरणों को, त्रियों को अपदा चातुर्वराय के अनुसार सारे समाज के हित के लिये खेती या अन्य व्यवसाय करनेवाले साधारण शी-पुरुषों को मोड़ कले मिले । अद्धा; श्री-शुदादिकों के लाय वदों की ऐसी अनबन होने से यदि यह कहा जाय, कि उन्हें मुनि कमी मिल ही नहीं सस्ती; तो उपनिपड़ों और पुराणों में ही ऐले वर्णन पाये जाते हैं कि गार्गी प्रभृति स्त्रियों को और विदुर प्रवृत्ति शुद्रों को ज्ञान की प्राति होकर सिद्धि मिल गई थी (वेस्.३.१.३६)। ऐसी दशा में यह सिदान्त नहीं किया जा सस्ता, कि सिर्फ पहले तीन वर्षों के पुरुषों दी को नुक्ति मिलती है और यदि यह मान लिया जाये कि स्त्री-शून आदि समी लोगों को मुनि मिल सकती है, तो अब बतलाना चाहिये कि उन्हें किस सावन से ज्ञान की प्राप्ति होगी। बादरायणाचार्य कहते हैं कि "विशेपानुग्रहश्च (वैसू. ३. ४. ३८) अयांत परमेश्वर का विशेष अनुग्रह ही उनके लिये एक साधन है; और मागवत (३.१.२५) ने कहा है किन्नधान-मकि मार्ग के ल में इसी विशेपानुग्रहालक सावन का " महामारत में और अताव गीता में भी निपल झिया गया है क्योंकि वियों, शूद्रों या (कलियुग के) नानधारी ब्राह्मणों के कानों तक श्रुति की आवाज नहीं पहुंचती है।" इस मार्ग से प्राप्त होनेवाला ज्ञान और उपनिपदों का ब्रह्मज्ञान-दोनों यद्यपि एकही से हों; तयारि अब त्री- पुरुष-सबन्धी या घालण-ज्ञानय-वैश्य शूद्र-सम्बन्धी कोई भेद शेष नहीं रहता और इस मार्ग के विशेष गुण के बारे में गीता कहती है कि मां हि पार्थ व्यपाभित्य वेऽपि युः पापयोनयः । त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रान्तेऽपि यांति परांगतिन् । "हे पार्य! ग्नी, वैश्य और शूद, या अन्त्यज आदि जो नीच वंश में उत्तम हुए है, वे नी सब उत्तम गति पा जाते हैं" (गो.९.३३)।यही लोक महामारत के अनुगीतापर्व में भी आया है (ममा. अन्व. ६.६); और ऐसी क्याएँ भी हैं, कि वनपान्तर्गत ब्राह्मण-व्याघ-सम्बाद में मांस वैचनेवाले व्याघ ने किसी ब्राह्मण को तथा शांतिपर्व में तुलाधार अयात् यनिय ने जानाले नाम तपस्वी ब्राह्मण के यह निरूपण सुनाया है, कि स्वधन के अनुसार निष्कानबुद्धि से आचरण करने से ही मोज्ञ कैसे मिल जाता है (ममा. बन. २०६-२४४, शां. रई०-२६३) । इससे प्रगट होता है कि जिसकी बुद्धि सम हो जाये वही ग्रेट है, फिर चाहे वह सुनार हो, वहुई हो, बनिया हो या कमाई; किसी मनुष्य को योन्यता उसके
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