४३४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल । देश के कुछ अनुकरणप्रेमीजन आज कल इसी गुण की निन्दा करते देख बाते है!माव काम्य का (१६. ४) यह वचन इसी बात का एक अच्छा दाहाण है कि, “अय वाऽमिनिविटछुद्धिषु। मजति व्यर्थकतां समापितम् ! "-खोटी समझ से चब एक बार मन ग्रस्त हो जाता है वव मनुष्य को अच्छी बातें भी ठीक नहीं जंचती। स्मादमाग में चनुयांश्रम का जो महत्व है, वह मतिमा में अथवा भागवत- धर्म में नहीं है। वर्णाश्रम-धर्म का वर्णन भागवतधर्म में भी किया जाता परन्तु उस धन का सारा दारमदार भकि पर ही होता है, इसलिये जिसकी भक्ति उत्कट हो वही सब में श्रेष्ट माना जाता है-फिर चाहे वह गृहस्य हो, वानप्रस्य या वैरागी हो, इसके विपय में भागवतधर्म में कुछ विधि-निषेध नहीं है (भाग १६.55. १३, १४ देतो)। संन्यास-ग्रायम स्मातधर्म का एक आवश्क माता है, भागवतधर्म का नहीं। परन्तु ऐसा कोई नियम नहीं कि भागवतधर्म के अनुयायी कमी विरक न हो; गीता में ही कहा है कि संन्याल और कर्मयोग दोनों मोक्ष की दृष्टि से समान योग्यता के हैं। इसलिये यद्यपि चतुर्याश्रम का स्वीकार न किया जावे, तयापि सांसारिक कमी को छोड़ बैरागी हो जानेवाले पुरुष भक्तिमा में भी पाये जा सकते हैं। यह बात पूर्व समय से ही कुछ कुछ चली आ रही है। परन्तु उस समय इन लोगों को प्रमुता न यो; और म्यारहवें प्रकरण में यह बात स्पष्ट रीति से यवला दी गई है, कि मगवहीता में कर्मत्याग की अपेक्षा कर्मयोग ही को अधिक महत्व दिया गया है। कालान्तर से कर्मयोग का यह महाच लुप्त हो गया और वर्तमान समय में भागवत-धर्मीय लोगों की मी यही समझ हो गई है, कि भगवद्भक वही है कि जो सांसारिक कमों को छोड़ विरक हो, केवल भक्ति में ही निमत हो जाये । इसलिये यहाँ भकि की धष्टि से फिर भी कुछ थोडासा विवेचन करना आवश्यक प्रतीत होता है कि इस विषय में गीता का मुख्य सिद्धान्त और सचा टग्देश क्या है । महिमागं का अथवा भागवतमा का ब्रह्म स्वयं सगुण भगवान् ही है। यदि यही भगवान् स्वयं सारे संसार के कता-घता है और साधुजनों की रक्षा करने तथा दुष्टजनों को दंड देने के लिये समय-समय पर अवतार लेकर इस जगत् का धारण-पोपण किया करते है तो यह कहने की यावश्यकता नहीं, कि भगदलों को भी लोग्संग्रह के लिय उन्हीं भगवान का अनुकरण करना चाहिये। हनुमान जी रामचन्द्र के बड़े मक थे; परन्तु उन्होंने रावण आदि दुष्टजनों के निदलन करने का काम कुछ छोड़ नहीं दिया था। भीष्मपितामह की गणना मी परम भगवनों में की जाती है। परन्तु यद्यपि वे स्वयं मृत्युपर्यन ब्रह्मचाती रहे तथापि उन्होंने स्वधर्मानुसार स्वकीयों की और राज्य की रक्षा करले काम अपने जीवन भर जारी रखा था । यह बात सच है कि वर भक्ति के द्वारा परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, यमकको स्वयं अपने हित के लिये कुछ मात कर लेना शेष नहीं रह जाता । पस्तु प्रेममूलक
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