भक्तिमार्ग। 1 ४३३ आप ही अपना शत्रु और आप ही अपना मित्र है (गी. ६.५)- यह तत्व भक्तिमार्ग में भी प्रायः ज्यों का त्यों अर्थात्, शब्द-भेद न करके बतलाया जाता है। साधु तुकाराम के इस भाव का उल्लेख पहले हो चुका है कि " इसमें किसी का क्या नुकसान हुआ ? अपनी युराई अपने हाथों कर ली।" इससे भी अधिक स्पष्ठ शब्दों में उन्होंने कहा है कि “ईश्वर के पास कुछ मोन की गठड़ी नहीं धरी है, कि वह किसी के हाथ में दे दे। यही तो इंद्रियों को जीतना और मन को निर्विपय करना ही मुख्य उपाय है। " क्या यह उपनिपदों के इस मंत्र " मन एव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः " के समान नहीं है ? यह सच है कि परमेश्वर ही इस जगत् की सब घटनाओं का करनेवाला है परन्तु उस पर निर्द- यता का और पक्षपात करने का दोप न लगाया जावे, इसलिये कर्म-विपाक प्रक्रिया में यह सिद्धान्त कहा गया है, कि परमेश्वर प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार फल दिया करता है। इसी कारण से यह सिद्धन्त भी-बिना किसी प्रकार का शब्द-भेद किये ही-भभिमार्ग में ले लिया जाता है। इसी प्रकार यद्यपि उपासना के लिये ईश्वर को व्यक्त मानना पड़ता है, तथापि अध्यात्म- शास्त्र का यह सिद्धान्त भी हमारे यहाँ के भक्तिमार्ग में कभी छूट नहीं जाता कि जो कुछ व्यक्त है वह सब माया है और सत्य परमेश्वर उसके परे है। पहले कह चुके है कि इसी कारण से गीता में चेदान्तसूत्र-प्रतिपादित जीव का स्वरूप ही स्थिर रखा गया है। मनुष्य के मन में प्रत्यक्ष की ओर अथवा व्यक्त की और मुकने की जो स्वामाविक प्रवृत्ति हुआ करती है, उसमें और तत्वज्ञान के गहन सिद्धान्तो में मेल कर देने की, वैदिक धर्म की, यह रीति किसी भी अन्य देश के भक्तिमार्ग में देख नहीं पड़ती । अन्य देश-निवासियों का यह हाल देख पड़ता है कि जब चे एक वार परमेश्वर की किसी सगुण विभूति का स्वीकार कर व्यक्त का सहारा लेते हैं, तब वे उसी में आसक्त होकर फंस जाते है उसके सिवा उन्हें और कुछ देख ही नहीं पड़ता और उनमें अपने अपने सगुण प्रतीक के विषय में पृथामिमाग उत्पन्न हो जाता है। ऐसी अवस्था में वे लोग यह मिथ्या भेद करने का यल करने लगते हैं, कि तत्त्वज्ञान का मार्ग भिन्न है और श्रद्धा का भकिमार्ग शुदा है। परन्तु हमारे देश में तत्वज्ञान का उदय बहुत प्राचीन काल में ही हो चुका था, इसलिये गीता-धर्म में श्रद्धा और ज्ञान का कुछ भी विरोध नही है, बल्कि वैदिक ज्ञानमार्ग श्रद्धा से, और वैदिक भक्तिमार्ग ज्ञान से, पुनीत हो गया है। अतएव मनुष्य किसी भी मार्ग का स्वीकार क्यों न करे, अन्त में उसे एकही सी सद्गति प्राप्त होती है । इसमें कुछ आश्चर्य नहीं, कि अव्यक्त ज्ञान और व्यक्त भनि के मेल का यह महत्व केवल व्यक्त क्राइस्ट में ही लिपटे रहनेवाले धर्म के पंडितों के ध्यान में नहीं आ सका. और इसलिये उनकी एकदेशी तथा तत्वज्ञान की ष्टि से कोती नजर से गीताधर्म में उन्हें विधि देख पड़ने लगा । परन्तु आश्चर्य की बात तो यही है, कि वैदिक धर्म के इस गुण की प्रशंसा न कर हमारे ही गी. र. ५५
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