४३० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। देवमय है (७.१८); अथवा " सर्वभूतान्यशेम द्वचस्यामन्ययो मयिहान हो जाने पर त् सब प्राणियों को मुममें और स्वयं अपने में भी देखेंगा (४५)। इसी कारण से. भागवत पुराण में भी भगवद्भक का लक्षण इस प्रकार का गया है- सर्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः । भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोचमः ।। " जो अपने मन में यह भेद-भाव नहीं रखता कि मैं अलग हूँ, भगवान् अला है और सब लोग भिन्न है, किन्तु जो सय प्राणियों के विषय में यह भाव रखता है कि भगवान् और मैं दोनों एक हूँ, और जो यह समझता है कि सब प्राणी भगवान् में और मुझमें भी हैं। वही सव मागवतों में श्रेष्ठ है। (भाग. ११. २. ४५ और ३. २१. १६)। इससे देख पड़ेगा कि अध्यात्मशास्त्र "अन्यक परमात्मा' शब्दों के बदले व्यक्त परमेश्वर' शब्दों का प्रयोग किया गया है- बस यही मैद है। अध्यात्मशास्त्र में यह बात युक्तिवाद से सिद्ध हो चुकी है कि परमात्मा के अध्यक होने के कारण सारा जगत् मात्ममय है । परन्तु भक्तिमार्ग प्रत्यक्ष-अवगम्य है इस लिये परमेश्वर की अनेक व्यक विभूतियों का वर्णन करके और अर्जुन को दिव्यष्टि देकर प्रत्यक्ष विश्वरूप-दर्शन से इस बात की सानात्प्रतीति करा दी है, कि साल जगत् परमेश्वरमय (आम्ममय)है (गी. अ.१० और ११) । अध्यात्मशास्त्र में कहा गया है कि कर्म का क्षय ज्ञान से होता है। परन्तु भक्तिमार्ग का यह तत्व है कि सगुण परमेश्वर के सिवा इस जगत् में और कुछ नहीं ई-वधी ज्ञान है, वही कर्म है, वही ज्ञाता है, यही करनेवाला, करवानेवाला और फल देनेवाला मी है। प्रतएव संचित, प्राध, क्रियमाण इत्यादि कर्मभेदों के मंझट में न पड़ महिमा के अनुसार यह प्रतिपादन किया जाता है कि कर्म करने की बुद्धि देनेवाला, कर्म कर फल देनवाला, और कर्म का तय करनेवाला एक परमेश्वर ही है। उदाहरणार्थ, तुकाराम महाराज एकान्त में ईश्वर की प्रार्थना करके स्पष्टतासे और प्रेमपूर्वक कहते हैं- एक वात एकान्त में मुन लो, जगदाधार । तारें मेरे कर्म तो प्रमु का क्या उपकार ! यही भाव अन्य शब्दों से दूसरे स्थान पर इस प्रकार यक मिया गया है कि प्रारब्ध, क्रियमाण और संचित का झगड़ा भक्तों के लिये नहीं है देखो, सर कुब ईश्वर ही है जो भीतर-बाहर सर्व व्याप्त है। भगवद्गीता में भगवान् ने यही कहा है कि " ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्टति " (१८.६१) ईश्वर ही सब लोगों के हृदय में निवास करके उनसे यंत्र के समान सब कम कराता है। कर्म- विपाक अनिया में सिद्ध किया गया है कि ज्ञान की प्राप्ति कर लेने के लिये मामा को पूरी स्वतन्त्रता है। परन्तु उसके बदले भक्तिमार्ग में यह कहा जाता है कि इस बुद्धि का देनेवाला परमेश्वर ही ई-"तस्य तस्याचलां श्रद्धा वामेव विदधाम्यहम्"
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