पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४६७

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४२८ गीतारहस्य और कर्मयोगशास्त्र । प्रारम्भ इस द्वैत-भाव से ही किया जाता है,कि तपास्य भिन्न है और उपासक भी मिन्न है, तो अन्त में ब्रह्मात्मैश्यरूप ज्ञान कैसे होगा? परन्तु यह दलील केवल श्रान्ति. मूलक है। यदि ऐसे ताफिकों के कथन का सिर्फ इतना अर्थ हो, कि ब्रह्मात्मज्ञान के होने पर भक्ति का प्रवाह रुक जाता है. तो उसमें कुछ आपत्ति देख नहीं पड़ती। क्योंकि अध्यात्मशास्त्र का भी यही सिद्धान्त है, कि जब उपास्य, उपासक और उपासनारूपी त्रिपुटी का लय हो जाता है, तब वह व्यापार वन्द हो जाता है जिसे ज्यवहार में भक्ति कहते हैं । परन्तु यदि उक्त दलील का यह अर्थ हो कि द्वैतमूलक भक्तिमार्ग से अन्त में अद्वैत ज्ञान हो ही नहीं सकता, तो यह दलील न केवल तर्कशास्त्र की दृष्टि से किन्तु बड़े बड़े भगवद्भक्तों के अनुभव के आधार से भी मिथ्या सिद्ध हो सकती है। तर्कशास्त्र की दृष्टि से इस बात में कुछ रुकावट नहीं देख पड़ती कि परमेश्वर-स्वरूप में किसी भक का चित ज्यों ज्यों अधि- काधिक स्थिर होता जावे, त्यो त्यों उसके मन से भेद-भाव भी छूटता चला जावे । ब्रह्म-सृष्टि में भी हम यही देखते हैं कि यद्यपि प्रारम्भ में पारे की बूंदें मिन भिन्न होती है, तथापि वे आपस में मिल कर एकत्र हो जाती है। इसी प्रकार अन्य पदार्थों में भी एकीकरण की क्रिया का प्रारम्भ प्राथमिक मिलता ही से हुआ करता है। और इंगि-कीट का दृष्टान्त तो सव लोगों को विदित ही है। इस विषय में तर्कशास्त्र की अपेक्षा साधुपुरुपों के प्रत्यक्ष अनुभव को ही अधिक प्रामाणिक समझना चाहिये। भगवद्भक-शिरोमणि तुकाराम महाराज का अनुभव हमारे लिये विशेष महत्व का है। सव लोग मानते हैं कि तुकाराम महाराज को कुछ उपनिषदादि ग्रन्थों के अध्ययन से अध्यात्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था,तथापि उनकी गाथा में लगभग चार सौ अभंग अद्वैत-स्थिति के वर्णन में कहे गये हैं। इन सब अभंगों "में वासुदेवः सर्व " (गी. ७. १६) का भाव प्रतिपादित किया गया है, अथवा वृहदारण्यकोपनिषद् में जैसा याज्ञवलय ने " सर्वमात्मैवाभूत् " कहा है, वैसे ही अर्थ का प्रतिपादन स्वानुभव से किया गया है । उदाहरण के लिये उनके एक अभंग का कुछ प्राशय देखिये-- गुड़ सा मीठा है भगवान, बाहर-भीतर एक समान । किसका ध्यान कलं सविवेक ? जल-तरङ्ग से हैं हम एक ॥ इसके आरम्भ का उल्लेख हमने अध्यात्म-प्रकरण में किया है चार वहाँ यह दिखलाया है कि उपनिपदों में वर्णित ब्रह्मात्मैक्यज्ञान से उनके अर्थ की किस तरह पूरी पूरी समता है । जब कि स्वयं तुकाराम महाराज अपने अनुभव से भक्तों की परमावस्था का वर्णन इस प्रकार कर रहे हैं, तब यदि कोई तार्किक यह कहने का साहसं करे- कि "भक्तिमार्ग से अद्वैतज्ञान हो नहीं सकता," अथवा "देवताओं पर केवल अन्ध- विश्वास करने से ही मोक्ष मिल जाता है, उसके लिये ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं, तो इसे आश्चर्य ही समझना चाहिये। भक्तिमार्ग का और ज्ञानमार्ग का अन्तिम साध्य एक ही है, और " परमेश्वर