४२४ गीतारहस्य यथवा कर्मयोगशास्त्र । - प्रतीक में शुद्ध भाव रख कर परमेश्वर की प्राप्ति कर लेने का कौनसा उपाय ? यह कह देने से काम नहीं चल सकता कि 'भक्ति मार्ग में ज्ञान का काम अदा से हो वाता है, इसलिये विद्याल से या श्रद्धा से परमेश्वर के शुद्धस्वरूप को जान का प्रतीक मैं मी वही भार बोयस, नुम्हारा भाव सपाल हो जायगा ।' कारण यह है कि भाव रखना नन का अयांत श्रद्धा का धर्म है सही, परन्तु जमे बुद्धि की थोड़ी बहुत सहायता बिना मिले कभी काम चल नहीं सकता । अन्य सब मनोवों के अनुलार केवल प्रद्धा या प्रेम मी एक प्रकार से अन्धे ही हैं। यह बात केवल श्रद्ध या प्रेम की कमी नाचूम हो नहीं सकती कि किस पर श्रद्धा रखनी चाहिये और किस पर नहाँ, अथवा किस से प्रेम करना चाहिये और किस से नहीं। यह काम प्रत्येक मनुष्य को अपनी बुद्धि से ही करना पड़ता है, क्योंकि निर्णय करने के लिये बुद्धि के सिवा कोई दूसरी इंद्रिय नहीं है। सारांश यह है कि चाहे किसी मनुष्य की बुद्धि अत्यन्त तीव न भी हो, तथापि उसमें यह जानने का सामर्त्य तो अवश्य ही हाना चाहिये कि श्रद्धा, प्रेम या विश्वास कहाँ रखा जाये, नहीं तो अन्धश्रद्धा और उसी के साथ अन्धप्रेम भी धोखा खा नायगा और दोनों गडढे में जा गिरेंगे। विपरीन पक्ष में ग्रह भी कहा जा सकता है कि श्रद्धारहित केवल बुद्धि हो यदि कुछ काम करने लगे तो कोरे युक्तिवाद और कंज्ञान में फंसकर न जाने वह कहाँ कहाँ भटकती रहेगी; वह जितनी ही अधिक तीव होगी दतनी ही अधिक भड़केगी। इसके अतिरिक्त इस प्रकरण के प्रारम्भ ही में कहा जा चुका है कि ब्रद्धा आदि मनोधर्मों की सहायता बिना केवल बुद्धिगम्य ज्ञान में करव-शक्ति भी उत्पन्न नहीं होती। अतएव श्रद्धा और ज्ञान, अथवा मन और बुद्धि का हमेशा साय रहना आवश्यक है। परन्तु मन और बुद्धि दोनों त्रिगुणात्मक प्रकृति ही के विकार हैं इसलिये उनमें से प्रत्येक के जन्मतः तीन भेद-साविक, राजस और ताम- हो सकते हैं और यद्यपि उनका साथ हमेशा बना रहे तो भी मिन्न भिन्न मनुष्यों में उनकी जितनी शुद्धता या अशुद्धता होगी उसी हिसाब से मनुष्य के स्वभाव, सनम और व्यवहार भी मिच मिन्न हो जायेंगे । यही बुद्धि कंबल जन्मतः अशुद्ध, राजस या तामस हो तो उसका किया हुआ मले-बुरे का निर्णय गलत होगा, जिसका परिणाम यह होगा कि अन्य श्रद्धा के सारिक अथांव शुद्ध होने पर नी वह धोखा खा जायगा। अच्छा, यदि श्रद्धा ही जन्मतः अशुद्ध हो तो बुद्धि के साविक होन से भी कुछ नाम नहीं, क्योंकि ऐसी अवस्था में बुद्धि की आज्ञा को मानने के लिये श्रद्धा तैयार ही नहीं रहती। परन्तु साधारण अनुभव यह है कि बुद्धि और मन दोनों अलग अलग अशुद्ध नहीं रहते; जिसकी बुद्धि जन्मतः अशुद्ध होती है उसका मन अर्थात् प्रदा भी प्रायः न्यूनाधिक अशुद्ध अवस्या ही में रहती है। और फिर यह अशुद बुद्धि स्वभावतः अशुद्ध अवस्या में रहनेवाली श्रद्धा को अधिकाधिक श्रम में डाल दिया करती है। ऐसो भवत्या में रहनेवाले किसी मनुन्य को परमेश्वर के शुद्धस्वरूप का चाहेजसा टपदेश किया जाय, परन्तु वह उसके मन में
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