भक्तिमार्ग। ४१६ शनाला भी (गी. ६. १६ और १०.३२) वही है । अतएव भगवद्भक्त तुकाराम महाराज ने भी इसी भाव से कहा ई- छोटा वदा कहें जो कुछ हम । पवता सब तुझे महत्तम ।। इस प्रकार विचार करने पर मालूम होता है कि प्रत्येक वस्तु अंशतः परमेश्वर ही का स्वरूप तो फिर जिन लोगों के ध्यान में पामेश्वर का यह सर्वन्यपी स्वरूप एका- एक नहीं आ सकता, वे यदि इस अव्यक्त और शुद्ध रूप को पहचानने के लिये इन अनेक यातुओं में से किसी एक को साधन या प्रतीक समझ कर उसकी उपासना करें तो क्या हानि है? कोई मन की उपासना करेंगे, तो कोई द्रव्य-यज्ञ या जपयज्ञ करेंगे। कोई गरुड़ की भक्ति करेंगे, तो कोई मन्त्रावार ही का जप करेंग। कोई विष्णुका, कोई शिव का, कोई गणपति का और कोई भवानी का भजन करेंगे । कोई अपने माता-पिता के चरणों में ईश्वर-भाव रख कर उनकी सेवा करेंगे और कोई इससे भी अधिक व्यापक सर्वभूतात्मक विराट् पुरुष की उपासना पसन्द करेंगे । कोई कहेंगे सूर्य को भजो और कोई कहेंगे कि राम या कृपण सूर्य से भी श्रेष्ठ हैं । परन्तु अज्ञान से या मोह से जब यह ष्टि छूट जाती है कि "सम विभूतियों का भूल-स्पान एक ही परमाता है," अथवा अब किसी धर्म के मूल सिदान्तों में ही यह ब्यापक अष्टि नहीं होती, तब अनेक प्रकार के उपायों के विषय में पृयाभिमान और दुरामा उपस की बाता है और कभी कभी तो लड़ाइया हो जान तक नीयत प्रापहुँचती २० वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई या मुहम्मदी धर्मों के परस्पर-विरोध की यात छोड़ दें और केवल ईसाई धर्म को ही देखें, तो यूरोप के इतिहास से यही देव पड़ता है कि एकही सगुण और ज्याक ईसामसीह के उपासकों में भी विधि-मैदों के कारण एक दूसरे की जान लेने तक की नीयत पा चुकी थी। इस देश के सगुण-उपासकों में भी भय तक यह भगड़ा देख पड़ता है कि हमारा देव निराकार होने के कारण अन्य लोगों के साकार देव से श्रेष्ठ है ! भक्तिमार्ग में उत्पन्न होनेवाले इन झगड़ों का निर्णय करने के लिये कोई उपाय है या नहीं? यदि है, तो वह कौनसा अपाय है?जय तक इसका ठीकक विचार नहीं हो जायगा, तब तक भकिमार्ग देखटके का या चगैर धोखे का नहीं कहा जा सकता। इसलिये अब यहीविचार किया जायगा कि गीता में इस प्रक्ष का क्या उत्तर दिया गया है । कहना नहीं होगा कि हिन्दुस्थान की वर्तमान दशा में इस विषय का यथोचित विचार करना विशेष महाय कीवात है। साम्यवृद्धि की प्राप्ति के लिये मन को स्थिर करके परमेघर की अनेक सगुण विभूतियों में से किसी एक विभूति के स्वरूप का प्रथमतः चिन्तन करना भयक उसको प्रतीक समझकर प्रत्यक्ष नेत्रों के सामने रखना, इत्यादि साधनों कानण व प्राचीन सपनिपदों में भी पाया जाता है और रामतापनी सरीखे उत्तरकालीन प- निपद में या गीता में भी मानवरूपधारी सगुण परमेश्वर की निस्सीम भौर एकान्तिक
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