भक्तिमार्ग। ४१७ पिया, गुप्त रखी जाती थी और केवल शिष्यों के अतिरिक्त अन्य किसी को भी उनका उपदेश महों किया जाता था । अतएव कोई भी विधा हो. वह गुह्य प्रयश्य ही होगी। परन्तु ग्रहप्राप्ति के लिये साधनीभूत होनेवाली जो ये गुप्ता विद्या, या मार्ग हैं वे यगपि अनेक हो तथापि उन सब में गीता- प्रतिपादित भक्तिमार्गरूपी विद्या प्रात् साधन श्रेष्ठ (गुलानां विद्यानां च राजा) है। क्योंकि हमारे मतानुसार उन लोक का भावार्य यह ई-कि वह (भनिमार्गरपी साधन)ज्ञानमार्ग की विद्या के समान अन्यक नहीं है, किन्तु यह 'मलान ' धाग्यों ने दिखाई देनेवाला है, और इसी लिये उसका आचरगा भी सुख से किया जाता है । यदि गीता में केवल पुद्धिगम्य ज्ञानमार्ग ही प्रतिपादित किया गया होता तो, वैदिक धर्म के सब सम्प्रदायों में आज सैकड़ों वर्ष से इस ग्रंथ फी जैसी चाह होती चली आ रही है, वैसी हुई होती या नहीं इसमें सन्देह है। गीता में जो मधुरता, प्रेम या रस भरा है यह उसमें प्रतिपादित भक्तिमार्गही कर परिणाम है। पहले तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने, जो परमेश्वर के प्रत्यन अवतार ई, यह गीता कही है और उसमें भी दूसरी बात यह है कि भगवान् ने अज्ञेय पापस का कोरा मान भी नहीं कहा है, किन्तु स्थान पान में प्रथम पुरुष का प्रयोग करके अपने सगुण और व्यक्त स्वरूप को लक्ष्य पर कटा है. कि “ मुझमें यह सब [या हुआ है" (७.७), "यह मय मेरी माया है" (७.१४), " गुहासे भित और कुछ भी नहीं है" (७.७). " मुदो शत्रु और मित्र दोन घरापर हैं" (६.२८), " मैने इस जगन् को उत्पन्न किया है" (६. ४), दी. मात्र या और मोक्ष का मूल हूँ" (१४.२७) अथवा "गुशे पुरुषोत्तम' कहते बैं" (५.१८); और अन्त में अर्जुन को यह उपदेश किया है कि "सब धर्मों फो छोड़ तू प्रकले मेरो शरण पा, गं तुझे सय पापों से मुक्त करूंगा, र मत (८.६६)। इसमें श्रोता की यह भावना हो जाती है कि मानो मैं साक्षात् ऐसे पुरुषोत्तम के सामने खड़ा हूँ कि जो समष्टि, परमपूज्य और अत्यंत दयालु है, और तय पात्मज्ञान के विषय में उसको निष्ठा भी बहुत पढ़ हो जाती है । इतना ही नहीं; फिन्तु गीता के अध्यायों का इस प्रकार पृथक पृथक विभाग न कर, कि एक बार ज्ञान का तो दूसरी यार भक्ति का प्रतिपादन हो, शान ही में भाकि और भक्ति ही में ज्ञान को गूंथ दिया है। जिसका परिणाम यह होता है कि ज्ञान और भक्ति में अथवा बुद्धि और प्रेम में परस्पर विरोध न होकर परमेघर के ज्ञान ही के साथ साप प्रेमरस का भी अनुभव होता है और सब प्राणियों के विषय में प्रान्मौपम्य पुद्धि की जागृति होकर अन्त में चित्त को पिलगा शान्ति, समाधान और सुख प्राप्त होता है। इसी में कर्मयोग भी था मिला है, मानो दूध में शधार मिल गई हो! फिर इसमें कोई पाश्चर्य नहीं जो हमारे परिजनों ने यह सिद्धान्त किया कि गीता-प्रतिपादित ज्ञान ईशावास्योपनिपद् के कथनानुसार मृत्यु और अमृत भर्यात इहलोक और परलोक दोनों जगह श्रेयस्कर है। गी.र.५३
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