भक्तिमार्ग। ४१५ सफलैर्य-सम्पत, दयासागर, भावन्सल, परमपवित्र, परमउदार, परमलराणिक परमपूज्य, सर्वसुन्दर, सकलगुणनिशान, सपा सैकप में कई तो ऐसे लाड़ले मगुण, प्रेमगम्य और पक्त यानी प्रत्यक्ष रूपधारी सुलभ परमेशर ही के स्वरूप का सहारा मनुष्य भक्ति के लिये स्वभावतः लिया करता है। जो परमल मूल में अचिन्त्य और 'एकमेवाद्वितीयम् है उसके उक्त प्रकार के मन्तिम दो स्वरूपों को (अर्थात् प्रेम, श्रद्धा भादि मनोमय नेत्रों से मनुष्य को गोचर होनेवाले स्वरूपों को)ही येसान्तशाख की परिभाषा में 'वर' कहते हैं। परमेघर सपंन्यापी छोफर भीमर्या- दित पयों हो गया। इसका उपर प्रसिद्ध महाराष्ट्र साधु नुकाराम ने एक पत्र में दिया है, जिसका साशय यह है- रहता है सर्वत्र हो यापफ एक समान। पर निज भकों के लिये छोटा है भगवान् ॥ यही सिद्धान्त घेदान्तसूत्र में भी दिया गया है (१. २.७ ) । उपनिपदों में भी जहाँ नही मय की उपासना का वर्णन है यहाँ यहाँ प्राण, मन इत्यादि सगुण और केवल भन्यक पस्तुमा ही का निर्देशन कर उनके साथ साथ सूर्य (धादित्य), भर इत्यादि सगुगा पार व्यक्त पदापी की उपासना भी कही गई है (ते. ३.२-६ नां.)। श्वेताधतरोपनिषद् में तो ईश्वर का लशा इस प्रकार पतला कर, कि "मायो तु प्रकृति विशार मापिनं तुमइधरम् "(१.१०)-प्रति प्रकृति को माया और इस मामा के अधिपति को मद्देमर गानो-मागे गीता ही के समान (गी. १०.३) सगुण ईश्वर की महिमा का इस प्रकार यगन किया है कि " ज्ञात्वा देव मुन्मते सर्वपाः" अर्थात् इस देय को जान लेने से मनुष्य सब पागों से मुक्त हो आता ६ (१.१६) ।गह जो नाम रूपात्मक पस्तु उपास्य परमहा के चिन्ह, पहचान, अवतार, बंश या प्रतिनिधि के तौर पर उपासना के लिये भागकई, उसी को वेदान्तशाल में प्रतीक कहते है । प्रतीक (प्रति+इक) शब्द का धात्वर्थ यह है-प्रति-अपनी धोर, इक-झुका हुमा, जय किसी वस्तु का कोई एक भाग पहले गोचर हो भार फिर भागे उस पातु का ज्ञान हो, तब उस भाग को प्रतीक कहते हैं। इस नियम के अनुसार, सन्यापी परमेश्वर का ज्ञान होने के लिपे उसका कोई भी प्रत्यक्ष चिन्ह, अंशरूपी विभूति या भाग 'प्रतीक' हो सकता है। उदाहरणार्य महाभारत में माझगा और ज्याध का जो संवाद है उसमें न्याय ने मामा को पहले बहुत सा मध्यात्मशन यतलाया; फिर से द्विगवर ! मेरा जो प्रत्यक्ष धर्म है उसे अप देखो "-" प्रत्यक्षं मन यो धर्मस्तं च पश्य हिजोसम " (वन. २१३.३) ऐसा कह कर उस मामय को यह व्याध भपने म मातापिता के समीप ले गया और कहने लगा-पही मेरे प्रत्यक्ष देवता हैं और मनोभाव से ईश्वर के समान इन्हींकी सेवा करना मेरा प्रत्यक्ष ' धर्म है। इसी प्राभिप्राय की मन में रख कर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने व्यक्त स्वरूप की उपासना पतलाने के पहले गीता में कहा है-
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