पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४५१

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । 'रंग' की यह अघ्यक कल्पना हो ही नहीं सकती। अब चाहे इसे कोई मनुष्य के मन का स्वभाव कई या दोपः कुछ भी कहा जाय, जब तक देहधारी मनुष्य अपने मन के इस स्वभाव को अलग नहीं कर सकता, तब तक उपासना के लिो यानी मांक के लिय निर्गुण से सगुण में और उसमें भी अव्यक्त सगुण की अपेक्षा व्यक्त सण ही में आना पड़ता है। इसके अतिरिक अन्य कोई मार्ग नहीं। यही कारण है कि व्यक्त उपासना का मार्ग अनादि काल से प्रचलित है समतापनीय आदि। में मनुष्यरूपधारी व्यक्त ब्रह्म-स्वरूप की उपासना का वर्णन है और भगवद्गीता में भी यही कहा गया है कि- क्लेशोऽधिकतरत्तेषां अव्यक्तासतचेतसाम् । अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवन्दिरवाप्यते ॥ अर्थात् " अव्यक्त में चित्त की (मन की ) एकाग्रता करनेवाले को यहुत कर होते है क्योंकि इस अन्यकाति को पाना देहद्रियधारी मनुष्य के लिये स्वभावतः कष्ट. दायक है- (१२. ५.)। इस 'प्रत्यक्ष 'मार्ग ही को 'भकिमार्ग' कहते है। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि कोई युद्धिमान पुरुष अपनी बुद्धि से परब्रह्म के स्वरूप का निश्चय कर उसके अव्यक्त स्वरूप में केवल अपने विचारों के बल से अपने मन को स्थिर कर सकता है। परन्तु इस रीति से अव्यक्त में मन' को आसक्त करने का काम भी तो अन्त में श्रद्धा और प्रेम से ही सिद्ध करना होता है, इसलिये इस मार्ग में भी श्रद्धा और प्रेम की आवश्यकता छुट नहीं सकती। सत्र पूढो तो तात्विक दृष्टि से सच्चिदानन्द बलोपासना का समावेश भी प्रेममूलक भक्ति-माग में ही किया जाना चाहिये । परन्तु इस मार्ग में ध्यान करने के लिये जिस ब्रह्म-स्वरूप को स्वीकार किया जाता है वह केवल अव्यक्त और बुद्धिगम्य अर्थात् ज्ञानगम्य होता है और टमी को प्रधानता दी जाती है, इसलिये इस क्रिया को भक्ति मार्ग न कहकर अध्यात्मविचार, अव्यक्तोपासना या कंत्रल उपासना, अथवा शनमार्ग कहते हैं । और, उपास्य ब्रह्म के सगुण रहने पर भी जब उसका अन्यक के बदले न्यक- और विशेषतः मनुष्य-देहधारी-रूपस्वीकृत किया जाता है, तब वही भक्तिमार्गका लाता है। इस प्रकार यद्यपि मार्ग दाई तयापि उन दोनों में एकही परमेश्वर की प्राप्ति होती है और अन्त में एकही सी साम्यबुद्धि मन में उत्पन्न होती है। इसलिये स्पष्ट देख पड़ेगा कि जिस प्रकार किसी छत पर जाने के लिये दो जीन होते हैं उसी प्रकार भिन्न भिन्न मनुष्यों की योग्यता के अनुसार ये दो (ज्ञानमार्ग और मक्किमाग) अनादि सिद्ध भिन्न भिन्न मार्ग हैं-इन मागों की मित्रता से अन्तिमसाध्य अथवा ध्येय में कुछ मित्रता नहीं होती। इसमें से एक ज़ीन की पहली सीढ़ी बुद्धि है, तो दूसरे जीने की पहली सीढ़ी श्रद्धा और प्रेम है और, किसी भी मार्ग से जामो एक ही परमेश्वर का एकही प्रकार का ज्ञान होता है, एवं एकही सी मुक्ति भीप्राप्त होती है। इसलिये दोनों भागों में यही सिद्धांत एक ही सा स्थिर रहना है, कि अनुमवात्मक ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं मिलता। फिर यह व्यर्य बखेड़ा अन्त