पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४४९

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अर्थ केवल निरतिशय ही नहीं है, किन्तु भागवतपुराण में कहा है कि वह प्रेम निहतुक, निष्काम और निरंतर हो-" महेश्यन्यत्रहिता या मक्तिः पुरुशरमे ' (माग. ३.२६. २)। कारण यह है कि, जब भोक इस हेतु से की जाती है कि हे ईश्वर ! मुझे कुछ दे” तय वैदिक यज्ञ-यागादिक कास्य कलों के समान से भी कुछ न कुछ व्यापार का स्वरूप प्राप्त हो जाता है । ऐसी मकि राजस कहलाती है और उससे तित की शुद्धि पूरी पूरी नहीं होती । जब कि चित्त की शुद्धि हो पूरी नहीं हुई, तब कहना नहीं होगा कि आध्यात्मिक उन्नति में और मोन को प्राति में भी याचा पा जायगी । अध्यात्मशाख-प्रतिपादित पूर्ण निष्कामता का तत्व इस प्रकार मन्ति-मार्ग में भी बना रहता है । और इसी लिये गीता में भगवदन्न की धार श्रेणियों करके कहा है, कि जो 'अर्थायी' है यानी जो कुछ पाने के हेतु परमेश्वर की भक्ति करता है वह निकृष्ट श्रेणी का भक्त है और परमेश्वर का ज्ञान होने के कारगा जो स्वयं अपने लिये कुछ पास करने की इच्छा नहीं रखता (गो. ३. १८.). परन्तु नारद आदिकों के समान जो 'ज्ञानी' पुरुष केवल कर्त्तव्य-बुद्धि से ही परमेश्वर की भक्ति करता है, वही सब भक्तों में श्रेष्ठ है (गी. ७.१६-16) यह भक्ति भागवतपुराण (७. ५. २३) के अनुसार नौ प्रकार की है, जैसे- अवर्ण कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पाद मेयनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं मख्यं आत्मनिवेदनम् ।। नारद के भक्तिन में इली भक्ति के ग्यारह मैद किये गये हैं (मा. सू.२)। परन्तु भक्षि के इन सब भेदों का निरूपण दासबोध आदि अनेक मापा-ग्रंथों में विस्तृत रीति से किया गया है, इसालेये दम यहाँ उनको विशेष चर्चा नहीं करते। भक्ति शिसी प्रकार की हो; यह प्रगट है कि परमेश्वर में निरतिशय और निहतुक प्रेम रख कर अपनी वृत्ति को तदाकार करने का मकि का सामान्य काम प्रत्येक मनुष्य को अपने मन ही से करना पड़ता है। छठवें प्रकरण में कह चुके हैं कि बुद्धि नामक जो अन्तरिन्द्रय है वह केवल भले-बुरे, धर्म-अधर्म अंथवा कार्य-अकार्य का निर्णय करने के सिवा और कुछ नहीं करती, शेप मानसिक कार्य मन ही को करने पड़ते है । अर्थात्, अय मन ही के दो भेद हो जाते है-एक मक्कि करनेवाला मन और दूसरा उसका उपाय यानी जिस पर प्रेम किया जाता है वह वस्तु । उपनिषदों में जिस श्रेष्ट ब्रह्मास्यरूप का प्रतिपादन किया गया है वह इन्द्रियातीत, अध्यक, अनन्त, निर्गुण और 'एकमेवाद्वितीय है, इसलिये उपासना का प्रारम्भ उस स्वरूप से नहीं हो सकता । कारण यह है कि जब श्रेष्ट ब्रह्मस्वरूप का अनुभव होता है तथा मन अलग नहीं रहता; किन्तु उपास्य और उपासक, अथवा ज्ञाता और शेय, दोनों एकरूप हो जाते हैं। निर्गुण ब्रह्म अन्तिम साध्य वस्तु है, साधन नहीं; और जय तक किसी न किसी साधन से निर्गुण ब्रह्म के साथ एकरूप होने की पात्रता मन मन आवे, तय तक इस श्रेष्ठ बलस्वरूप का साक्षात्कार हो नहीं सकता। अतएव साधन की दृष्टि से की जानेवाली उपासना के लिये जिस ब्रह्मस्वरूप का स्वीकार