तेरहवाँ प्रकरण। भक्तिमार्ग। . सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ग्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ * गीता. १८.६६॥ अब तक अध्यात्मदृष्टि से इन बातों का विचार किया गया कि सर्वभूता- 'मैक्यरूपी निष्काम-बुद्धि ही कर्मयोग की और मोक्ष की भी जड़ है, यह, शुद्ध-बुद्धि ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान से प्राप्त होती है, और इसी शुद्ध-बुद्धि से प्रत्येक मनुष्य को अपने जन्म भर स्वधर्मानुसार प्राप्त हुए कर्त्तव्यकर्मों का पालन करना चाहिये। परन्तु इतने ही से भगवद्गीता में प्रतिपादित विषय का विवेचन पूरा नहीं होता। यपि इसमें सन्देह नहीं, कि ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान ही केवल सत्य और अन्तिम साध्य है, तया " उसके समान इस संसार दूसरी कोई भी वस्तु पवित्र नहीं है" (गी. १.३८)तथापि अब तक उसके विषय में जो विचार किया गया और उसकी सहा. यता से साम्यबुद्धि प्राप्त करने का जो मार्ग बतलाया गया है, वह सब बुद्धिगम्य है। इसलिये सामान्य जनों की शक्का है, कि उस विषय को पूरी तरह से समझने के लिये प्रत्येक मनुष्य की युद्धि इतनी तीन कैसे हो सकती है। और यदि किसी मनुष्य की बुद्धि तीब न हो, तो क्या उसको प्रमात्मैक्य-ज्ञान से हाथ धो बैठना चाहिये ? सच कहा जाय तो यह शंका भी कुछ अनुचितं नहीं देख पड़ती । यदि कोई कहे- जब कि बड़े बड़े ज्ञानी पुरुप भी विनाशी नाम-रूपात्मक माया से माछादित तुम्हारे उस प्रसुतस्वरूपी परबहा का वर्णन करते समय 'नेति नेति' कह कर चुप हो जाते हैं, तब हमारे समान साधारण जनों की समझ में वह कैसे भावे ? इसलिये हमें कोई ऐसा सरल उपाय या मार्ग बतलाओ जिससे तुम्हारा वह गहन ब्रह्मज्ञान हमारी अल्प ग्रहण-शक्ति से समझ में आ जाये, तो इसमें उसका क्या दोष है ? गीता और कठोपनिषद् (गी. २. २९ क. २.७) में कहा है, कि भार्य-चकित हो कर भात्मा (अस) का वर्णन करनेवाले तथा सुननेवाले बहुत है, तो भी किसी को उसका ज्ञान नहीं होता । श्रुति-अन्यों में इस विषय पर एक बोधदायक कथा भी है। उसमें यह वर्णन है, कि जय याकलि ने बाह से कहा ." सब प्रकार के धर्मों को यानी परमेश्वर-प्राप्ति के साधनों को छोड़ मेरी ही शरण में आ । मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूँगा । डर मत ।" इस श्लोक के अर्थ का विवेचन इस प्रकरण के अन्त में किया गया है । सो दोखिये।
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