सिद्धावस्या और व्यवहार । ४०३ निगाय का तय है, परन्तु इस तस्व को हमारे शासकारों ने कभी मान्य नहीं किय ६। क्योंकि हमारे शास्त्रकारों का कथन है कि यह सार-प्रसार का विचार अनेक घार इतना सूक्ष्म और अनेकान्तिक, अर्थात् अनेक अनुमान निष्पन्न कर देने. याला, होता है कि यदि यह साम्यबुद्धि "जैसा मैं, पैसा दूसरा" पहले से ही मन में सोलही भाने जमी हुई न हो तो कोरे तार्किक सार-प्रसार के विचार से कर्तव्य अकर्तव्य का संदेव अचूक निर्णय होना सम्भव नहीं है और फिर ऐसी घटना हो जाने की भी सम्भावना रहती है जैसे कि 'मोर नाचता है। इसलिये मोरनी भी नाचने लगती है।' अर्थात् " देखा-देखी साधे जोग, छीजे काया, पाहे रोग" इस लोकोक्ति के अनुसार ढोंग फैल सकेगा और समाज की ज्ञानि होगी। मिल प्रभृति उपयुक्ततावादी पश्चिमी नीतिशास्त्रज्ञों के उपपादन में यही तो मुगप अपूर्णता है। गरुड़ झपट कर अपने पझे से मेमने को आकाश में उठा ले जाता है इसलिये देखादेखी यदि कौवा भी ऐसा ही करने लगे तो धोखा खाये. बिना न रहेगा। इसी लिये गीता कहती है कि साधु पुरुषों की निरी ऊपरी युक्तियाँ पर ही अपलन्धित मत रहो, अन्तःकरण में सदैव जागृत रहनेवाली साम्यवृद्धि की ही अन्त में शरण लेनी चाहिये, क्योंकि कर्मयोगशाला की सची जड़ साम्ययुदि ही है। पर्वाधीन माधिभौतिक परित्तों में से कोई खार्थ को तो कोई परार्थ अर्याद अधिकांश लोगों के अधिक सुख' को नीति का मूलतत्व बताते हैं। परन्तु हम चौधे प्रकरण में यह दिखला आये है कि कर्म के फेवल बाहरी परिणामों को उप- योगी होनेवाले इन तावों से सर्वत्र निर्वाह नहीं होता; इसका विचार भी अवश्य ही करना पड़ता है कि कर्ता की बुद्धि कहाँ तक शुद्ध है । फर्म के पास परिणामों के सार-प्रसार का विचार करना चतुराई का और दूरदर्शिता का लक्षण है सही; परन्तु दूरदर्शिता और नीति दोनों शब्द समानार्थक नहीं है। इसी से हमारे शास- फार कहते हैं कि निरे यान कर्म के सार-प्रसार-विचार की इस कोरी व्यापारी क्रिया में सद्वर्ताव का सचा वीज नहीं है, किन्तु साम्यबुद्धिरूप परमार्थ ही नीति का मूल आधार है। मनुष्य की अर्थात् जीवात्मा की पूर्ण अवस्या का योग्य विचार करें तो भी उक्त सिद्धान्त ही करना पड़ता है। जोभ से किसी को लूटने में बहुतेरे आदमी होशियार होते हैं परन्तु इस यात के जानने योग्य कोरे ब्रह्मज्ञान को ही- कि यह होशियारी, अथवा अधिकांश नोगों का अधिक सुख, काहे में है इस जगत् में प्रत्येक मनुष्य का परम साध्य कोई भी नहीं कहता । जिसका मन या अन्तःकरण शुद्ध है, वही पुरुप उत्सम कहलाने योग्य है । और तो क्या, यह भी कह सकते हैं कि जिसका अन्तःकरण निर्मल, निर और शुद्ध नहीं है वह यदि बास कमों के दिखाऊ यीव में पड़ कर तदनुसार वर्ते तो उस पुरुष के डोंगी बन जाने की भी सम्भावना है (देखो गी.३.६)। परन्तु कर्मयोगशाख में साम्य- बुद्धि को प्रमाण मान लेने से यह दोष नहीं रहता । साम्यबुद्धि को प्रमाण मान लेने ले कहना पड़ता है कि कठिन समस्या आने पर धर्म-अधर्म का निर्णय कराने
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४४२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।