सिद्धावस्था और व्यवहार । अनुसार, अथवा यात्मरक्षा के निमित्त जिस समय में जिसे जो धर्म श्रेयस्कर हो, उसको उसी धर्म का उपदेश करके जगत के धारण-पोषण का काम साधु लोग करते रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि मानव जाति की वर्तमान स्थिति में देशा. भिमान ही मुण्य सद्गुण हो रहा है, और सुधरे हुए राष्ट्र मी इन विचारों और तैयारियों में अपने ज्ञान का, कुशलता का और द्रव्य का उपयोग किया करते हैं कि पास-पड़ोस के शत्रु-देशीय बहुत से लोगों को प्रसन्न पड़ने पर थोड़े ही समय में हम क्यों कर जान से मार सकेंगे। किन्तु स्पेन्सर और कोन्ट प्रभृति पण्डितों ने अपने अन्यों में स्पष्ट रीति से कह दिया है कि केवल इसी एफ कारण से देशाभिमान को ही नीतिया मानव जाति का परम साध्य मान नहीं सकते चार जो भाक्षेप इन लोगों के प्रतिपादित तव पर हो नहीं सकता, वही भाक्षेप हम नहीं समझते कि अध्यात्म-दृष्टया प्राप्त होनेवाले सर्वभूतासैक्य रूप तत्व पर ही कैसे हो सकता है। कोटे बच्चे के कपड़े उसके शरीर के ही अनुलार-बहुत हुआ तो जरा कुशादह अर्थात याड़ के लिये गुजायश रख कर-जैसे व्योताना पड़ते हैं, वैसे ही सर्वभूता- मक्य-धुद्धि की भी बात है। समाज हो या व्यक्ति, सर्वभूतात्मैक्य-सुद्धि से उसके धागे जो साध्य रखना है वह उसके प्राधिकार के अनुरूप, अथवा उसकी अपेक्षा ज़रा सा और आगे का, होगा तभी वह उसको श्रेयस्कर हो सकता है उसके सामर्थ्य की अपेक्षा बहुत अच्छी बात उसको एकदम करने के लिये बतलाई जाय, तो इससे उसका कल्याण कभी नहीं हो सकता । परमल की कोई सीमा न होने पर भी उपनिपदों में उसकी उपासना की कम-कम से बढ़ती हुई सीढ़ियाँ बतलाने का यही कारण है और जिस समाज में सभी स्थितप्रज्ञ हो, यहाँ दान धर्म की ज़रूरत न हो तो भी जगर के अन्यान्य समाजों की तत्कालीन स्थिति परध्यान दे करके "मात्मानं सततं रक्षत" के ढर्रे पर हमारे धर्मशास्त्र की चातुर्वराय-व्यवस्था भैक्षात्र- धर्म का संग्रह किया गया है। यूनान के प्रसिद्ध तत्ववेत्ता प्लेटो ने अपने ग्रन्थ में जिस समाजव्यवस्था को अत्यन्त उत्तम बतलाया है, उसमें भी निरन्तर के अभ्यास से युद्धकला में प्रवीण पर्ग को समाजरक्षक के नाते प्रमुखता दी है। इससे स्पष्ट ही देख पड़ेगा कि तत्वज्ञानी लोग परमावधि के शुद्ध और उस स्थिति के विचारों में ही डूबे क्यों न रहा करें, परन्तु वे तत्तत्कालीन अपूर्ण समाज-व्यवस्था का विचार करने से भी कभी नहीं चूकते। ऊपर की सब बातों का इस प्रकार विचार करने से ज्ञानी पुरुष के सम्बन्ध में यह सिन्द होता है कि वह ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान से अपनी बुद्धि को निर्विषय, शान्त और प्राणिमान में निवर तथा सम रखे इस स्थिति को पा जाने से सामान्य अज्ञानी लोगों के विषय में उकतावे नहीं; स्वयं सारे संसारी कामों का त्याग कर, यानी कर्मसंन्यास-पाश्रम को स्वीकार करके इन लोगों की बुद्धि को न विगोड़, देश-काल और परिस्थिति के अनुसार जिन्हें जो योग्य हो, उसी का इन्हें उपदेश देवे; अपने निष्काम कर्तव्य-आचरण से सद्व्यवहार का अधिकारानुसार प्रत्यक्ष आदर्श दिखला गी.र.५१
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