विषयप्रवेश। 9 जैसा कि कोई मनुष्य एफ-आध उत्तम सुगंधयुक्त फूल को पा कर उसके रंग, सौंदर्य, सुवास आदि के विषय में कुछ भी विचार न करे और केवल उसकी पखुरिया गिनता रहे। अथवा जैसे कोई मनुष्य मधुमक्खी का मधुयुक्त छत्ता पा कर केवल छिद्रों को गिनने में ही समय नष्ट कर दे ! परन्तु अघ पश्चिमी विद्वानों के अनुकरण से हमारे माधुनिक विद्वान् लोग गीता की बाय-परीक्षा भी बहुत कुछ करने लगे है। गीता के श्राप प्रयोगों को देख कर एक ने यह निश्चित किया है कि यह ग्रंथ ईसा से कई शतक पहले ही बन गया होगा । इससे यह शंका, मिलकुल ही निर्मूल हो जाती है, कि गीता का भक्तिमार्ग उस ईसाई धर्म से लिया गया होगा कि जो गीता से बहुत पीछे प्रचलित हुआ है। गीता के सोलह पध्याय में जिस नास्तिक मत का उल्लेख ई उसे बौद्ध- मत समझकर दूसरे ने गीता का रचना-काल युद्ध के बाद माना है। तीसरे विद्वान् का कथन है कि तेरहवें अध्याय में 'नमसूत्रपदेश्चैव० श्लोक में ब्रह्मसूत्र का उल्लेख होने के कारण गीता मरमसून के याद बनी होगी। इसके विरुद्ध बाई जोग यह भी कहते हैं कि प्रससून में अनेक स्थानों पर गीता ही का आधार लिया गया है जिससे गीता का उसके बाद बनना सिद्ध नहीं होता। कोई कोई ऐला भी कहते हैं कि युद्ध में रणभूमि पर अर्जुन को सात सौ श्लोक की गीता सुनाने का समय मिलना संभव नहीं है। हाँ, यह संभव है कि श्रीकृष्ण ने पर्जुन को लड़ाई की जल्दी में दस-बीस लोक या उनका भावार्थ सुना दिया हो और उन्हीं लोकों के विस्तार को संजय ने धृतराष्ट्र से, व्यास ने शुक से, वैशंपायन ने जनमेजय से और सृत ने शौनक से कहा हो; अथवा महाभारतकार ने भी उसको विस्तृत रीति से लिख दिया हो । गीता की रचना के संबंध में मन की ऐसी प्रवृत्ति होने पर, गीता सागर में दुबकी लगा कर, किसी ने सात, किसी ने प्रहाईल, किसी ने छत्तीस और किसी ने सौ मूल श्लोक गीता के खोज निकाले हैं । कोई कोई तो यहाँ तक कहते हैं कि अर्जुन को रणभूमि पर गीता का ग्रामज्ञान बतलाने की कोई आवश्य- पता ही नहीं पीपदान्त-विपय का यह उत्तम ग्रंथ पीछे से महाभारत में जोड़ दिया गया होगा। यह नहीं कि बहिरंग-परीक्षा की ये सब बातें सर्वथा निरर्थक हो । उदाहरणार्थ, ऊपर कही गई फूल की पखुरियों तथा मधु के छत्ते की यातको ही लीजिये । वनस्पतियों के वर्गीकरण के समय फूलों की पखुरियों का भी विचार अवश्य करना पड़ता है। इसी तरह, गणित की सहायता से यह सिद्ध किया गया आजकल एक सतलोकी गीता प्रकाशित हुई है, उसमें केवल यही सात शोक है:- (१) इत्येकाक्षर नसा इ० (गी. ८.१३.), (२) स्थाने हपीकेश तव प्रकीया ३० (गी. ११.३६), (३) सर्वतः पाणिपाद तव २० (गी. १३.१३); (४) कवि पुराणमनुशा- सितारं १० (गी. ८.५); (५) अर्धमूलमधःशाख २० (गी. १५.१), (६)सर्वस्य चाई सदि संनिविष्ट ५० (गी. १५.१५); (७) मन्मना भव मद्भक्तो ३० (गी.१८.६५) इसी तरह और भी अनेक संक्षिप्त गीताएँ पनी है।
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।