सिद्धावस्था और व्यवहार। ३६७ ध्यान रहे कि जो पुरुष अपने पुरे कामों से पराई गर्दनें काटने पर उतारू हो गया, उसे यह कहने का कोई भी नैतिक हक नहीं रह जाता कि और लोग मेरे साथ साधुता का यर्ताव करें। धर्मशास्त्र में स्पष्ट आज्ञा है (मनु. १६ और ३५१) कि इस प्रकार जय साधु पुरुषों को कोई असाधु काम लाचारी से करना पड़े, तो उसकी जिम्मेदारी शुन्द-युन्द्विवाले साधु पुरुषों पर नहीं रहती; फिन्तु इसका जिम्मे- दार वही दुष्ट पुरुप हो जाता है कि जिसके दुष्ट कसा का यह नतीजा है। स्वयं शुद्ध ने देवदत्त का जो शासन किया, उसकी उपपत्ति बौद्ध प्रायकारों ने भी इसी तत्त्व पर लगाई है (देखो मिलिन्दप्र. ४. ३.३०-३५)। जड़ सृष्टि के व्यवहार में ये साघात-प्रत्याघातरूपी फर्म नित्य और दिलकुल वोक्ष होते हैं। परन्तु मनुष्य के व्यवहार उसके इच्छाधीन हैं और उपर जिस प्रैलोक्य-चिन्तामणि की मात्रा का उल्लेख किया है, उसके दुष्टों पर प्रयोग करने का निश्चित विचार जिस धर्म- ज्ञान से होता है, वह धर्मज्ञान मी प्रत्यन्त सूक्ष्म है। इस कारण विशेष अवसर पर बड़े बड़े लोग भी सचमुच इस दुविधा में पड़ जाते हैं कि, जो हम किया चाहते वह योग्य है या अयोग्य, अथवा धय है या अवयं-कि फर्म किमकर्मति कवयोऽप्यन मोहिताः (गी. ४. ६)। ऐसे अवसर पर फोरे विद्वानों की, अथवा सदैव थोड़े-बहुत स्वार्थ के पजे में फैले हुए पुरुषों की परिडताई पर, या केवल अपने सार-ससार-विचार के भरोसे पर, कोई काम न कर बैठे बल्कि पूर्ण अवस्था में पहुँचे हुए परमाधि के साधुपुरुष की शुन्दपुद्धि के ही शरण में जा कर उसी गुरु के निर्णय को प्रमाण माने । क्योंकि निरा तार्किक पारिडत्य जितना अधिक होगा, दलीलें भी उतनी ही अधिक निकलेंगी; इसी कारण यिना शुद्धि के कोरे पागिस्त्य से ऐसे विकट प्रश्नों का कभी सच्चा और समाधानकारक निर्णय नहीं हो पाता; अतएव उसको शुन्ध और निष्काम युद्धिवाला गुरु ही करना चाहिये। जो शारणकार सत्यन्त सर्वमान्य हो चुके हैं, उनकी युन्दि इस प्रकार की शुद्ध रहती है, और यही कारण है जो भगवान् ने अर्जुन से कहा है-"तस्माच्छासं प्रमाण ते कार्याकार्यव्यवस्थिती" (गी. १६. २४)-कार्य-सकार्य का निर्णय करने में तुझे शास्त्र को प्रमागा मानना चाहिये। तथापि यह न भूल जाना चाहिये कि काल- मान के अनुसार श्वेतकेतु जैसे धागे के साधु पुरुषों को इन शाखों में भी फर्क करने का अधिकार प्राप्त होता रहता है। निवर और शान्त साधु पुरुषों के प्राचरण के सम्बन्ध में लोगों को बाज फल जो गैर-समझ देखी जाती है, उसका कारण यह है कि कर्मयोगमार्ग प्रायः लुप्त हो गया है, और सारे संसार ही को त्याज्य माननेवाले संन्यासमार्ग का भाज कल चारों ओर दौरदौरा हो गया है। गीता का यह उपदेश अयया उद्देश भी नहीं है कि निवर होने से निप्रतिकार भी होना ही चाहिये। जिसे लोकसंग्रह फी परवा ही नहीं है उले, जगत् में दुष्टों की प्रबलता फैले तो और न फैले तो, करना ही पया है। उसकी जान रहे चाहे चली जाय, सब एक ही सा है। किन्नु विस्था
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