सिद्धावस्था और व्यवहार। पलटा, प्रतिकार का काम हो चुकने पर जिन दुष्टों का प्रतिकार किया गया है, उन्हों का प्रात्मौपम्य-रष्टि से फल्याण मनाने की पुद्धि भी नष्ट नहीं होती। एक उदाहरण नीजिये, दुए कर्म करने के कारण रावण को, निर और निप्पाप राम- चन्द्र ने मार तो डाला; पर उसकी उत्तर-क्रिया करने में भय विभीपण हिचकने लगा, तब रामचन्द्र ने उसको समझाया कि- मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम् । क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव ।। (रावण के मन का) पैर मौत के साथ ही गया । हमारा ( दुष्टों के नाश फरने का) काम हो चुका । अय यह जैसा तेरा (भाई), पैसा ही मेरा भी है। इसलिये इसका अपि-संस्कार कर " (पाल्मीकिरा. ६. १०६. २५) । रामायण का यह सच भागवत (८.१६.१३) में भी एक स्थान पर घतलाया गया ही है, और अन्यान्य पुराणों में जो ये कमाएँ हैं, कि भगवान् ने जिन दुष्टों का संहार किया, उन्हीं को फिर दयालु हो कर सद्गति दे डाली, उनका रहस्य भी यही है । इन्हीं सब विचारों को मन में ला कर श्रीसमर्थ ने कहा है कि " उद्धत के लिये उन्नत होना चाहिय;" और महाभारत में भीष्म ने परशुराम से कहा है- यो यथा वर्तते यस्मिन् तस्मिन्नेवं प्रवर्तयन् । माधर्म समवाप्नोति न चाधेयभ विन्दति ॥ "अपने साथ जो जैसा यताव करता है, उसके साथ धैसे ही यतंगे से न तो अधर्म (अनीति) होता और न अकल्याण " (ममा. उद्यो. १७६. ३०)। फिर मागे चल कर शान्तिपर्व के सत्यानृत-अध्याय में वही उपदेश युधिष्ठिर को किया ई- यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्यः तस्मिस्तथा वर्तितव्यं स धर्मः । मायाचारो मायया बाधितष्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युपैयः॥ अपने साथ जो जैसा बर्तता है, उसके साथ वैसा ही यतीव करना धर्मनीति है; मायावी पुरुप के साथ मायावीपन और साधु पुरुष के साथ साधुता का व्यवहार करना चाहिये " (मभा. शां. १०६. २८ और उद्यो. ३६.७)। ऐसे ही ऋग्वेद में इन्द्र को उसके मायाचीपन का दोष न दे कर उसकी स्तुति ही की गई है कि- "त्वं मायाभिरनवध मायिन... पुत्रं प्रर्दयः।"(प्रर. १०. १४७. २. १.८०. )-हे निष्पाप इन्द्र ! मायावी वृत्र को तू ने माया से ही मारा है। सौर भारवि ने अपने किरातार्जुनीय काव्य में भी ऋग्वेद के तत्व का ही अनुवाद इस प्रकार किया ई- वजन्ति ते मूदाधियः पराभवं भवन्ति मायाविपु ये न मायिनः ॥ मायावियों के साथ जो मायावी नहीं बनते, वे नष्ट हो जाते है (किरा.१.३०) परन्तु यहाँ एक यात पर और ध्यान देना चाहिये कि दुष्ट पुरुष का प्रतिकार यदि साधुता
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