. सिद्धावस्था और व्यवहार । ३६३
1 एवं समाज की भी हानि करने का पाप लगे विना न रहेगा। कुबर से टकर लेनेवाला करोड़पति साहूकार यदि माज़ार में तरकारीभाजी लेने जावे, तो जिस प्रकार वह हरा धनियां की गड्डी की कीमत लाख रुपये नहीं दे देता, उसी प्रकार पूर्ण साम्यावस्था म पहुँचा हुआ पुरुप किसी भी कार्य का योग्य तारतम्य भूल नहीं जाता। उसकी बुद्धि सम तो रहती है, पर समता का यह अर्थ नहीं है कि गाय का चारामनुष्य को और मनुष्य का भोजन गाय को खिला दे; तथा भगवान ने गीता (१७.२०) में भी कहा है कि जो 'दातव्य' समझ कर सात्विक दान करना हो, वह भी “ देशे काले च पासे च " अर्थात् देश, काल और पानता का विचार कर देना चाहिये । साधु पुरुषों की साम्यबुद्धि के वर्णन में ज्ञानेश्वर महाराज ने उन्हें पृथ्वी की उपमा दी है। इसी पृथ्वी का दूसरा नाम 'सर्वसहा' है, किन्तु यह 'सर्वसहा ' भी यदि इसे कोई लात. मारे, तो मारनेवाले के पैर के तलवे में उतने ही जोर का धफा दे कर अपनी समता-युन्धि प्यक्त कर देती है! इससे भली भाँति समझा जा सकता है कि मन में पैर न रहने पर भी (अर्थात निवर) प्रति- फार फैसे किया जाता है। कर्मविपाफ-प्रक्रिया में फह आये हैं कि इसी कारण से भगवान् भी “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् " (गी. ४. ११)-जो मुझे जैसे भजते हैं, उन्हें मैं वैसे ही फल देता है-इस प्रकार घ्यवहार तो करते हैं परन्तु फिर भी “पम्य गय " दोषों से अलिप्त रहते हैं। इसी प्रकार व्यवहार अथवा कानून कायदे में भी खूनी आदमी को फाँसी की सजा देनेवाले न्यायाधीश को कोई उसका दुश्मन नहीं कहता। अध्यात्मशास्त्र का सिद्धान्त है कि जब पुत्रि निष्काम हो घर साम्यावस्था में पहुँच जावे, तब यह मनुष्य अपनी इच्छा से किसी का भी नुकसान नहीं करता, उससे यदि किसी का नुकसान हो ही जाय तो सम- झना चाहिये कि वह उसी के फर्म का फल है, इसमें स्थितप्रज्ञ का कोई दोष नहीं; अथवा निष्काम युद्धिवाला स्थितप्रज्ञ ऐसे समय पर जो काम करता है फिर देखने में वह मातृवध या गुरवध सरीखा फितना ही भयकर क्यों न हो-उसके शुभ- अशुभ फल का पन्धन अथवा लेप उसको नहीं लगता (देखो गी. ४. १४,६.२८ और १८.१७) । फौजदारी कानून में प्रात्मसंरक्षा के जो नियम हैं, वे इसी ताप पर रचे गये हैं। कहते हैं कि जब लोगों ने मनु से राजा होने की प्रार्थना की, तव उन्हों ने पहले यह उत्तर दिया कि “अनाचार से चलनेवालों का शासन करने के लिये, राज्य को स्वीकार करके मैं पाप में नहीं पड़ा चाहता। परन्तु जय लोगों ने यह वचन दिया कि, " तमनुवन् प्रजाः मा मीः कर्तृनेनो गमिप्याते" (ममा.शा. ६७. २३)-रिये नहीं, जिसका पाप उसी को लगेगा, आपको तो रक्षा करने का पुण्य ही मिलेगा; और प्रतिज्ञा की कि, “प्रजा की रक्षा करने में जो खर्च लगेगा उसे इम लोग 'कर' दे कर पूरा करेंगे, " तब मनु ने प्रथम राजा होना स्वीकार किया। सारांश, जैसे अचेतन सृष्टि का कभी भी न बदलनेवाला यह नियम कि 'माघात के बराबर ही प्रत्याघात' हुआ करता है। वैसे ही सचेतन गी...५० "