पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४३१

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३१२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । युरोपखंड को नामद कर डाला है। परन्तु हमारे धर्मग्रन्थों को देखने से ज्ञात होगा किन फेवल गीता को प्रत्युत मनु को भी यह बात पूर्णतया अवगत और सामत थी कि संन्यास और कर्मयोग, दोनों धर्ममागों में, इस विषय में भेद करना चाहिये । क्योंकि मनु ने यह नियम “ क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येत् " -क्रोधित होनेवाले पर फिर क्रोध न करो (मनु. ६.४८), न गृहस्थधर्म में बतलाया है और न राजधर्म में; यतलाया है फेवल यतिधर्म में ही। परन्तु आज कल के टीकाकार इस बात पर ध्यान नहीं देते कि इनमें कौन बचन किस मार्ग का ई अथवा उसका कहाँ उपयोग करना चाहिये उन लोगों ने संन्यास और कर्ममागं दोनों के परस्पर-विरोधी सिद्धान्तों को गड्डमगष्ट कर डालने की जो प्रणाली ढाल दी है, उस प्रणाली से प्रायः कर्म- योग के सच्चे सिद्धान्तों के सम्बन्ध में कैसा भ्रम पड़ जाता है, इसका वर्णन इम पाँचवें प्रकरण में कर आये है । गीता के टीकाकारों की इस नामक पद्धति को छोड़ देने से सहज ही ज्ञात हो जाता है कि भागवतधर्मी कर्मयोगी “निवर' शब्द का क्या अर्थ करते हैं। क्योंकि ऐसे अवसर पर दुष्ट के साथ कर्मयोगी गृहस्य को लेसा यताव करना चाहिये, उसके विषय में परम भगवद्भक्त प्रह्लाद ने ही कहा है कि "तस्मानित्यं क्षमा तात ! पण्डितैरपचादिता" (ममा. वन.२८.८) हे तात! इसी हेतु से चतुर पुरुषों ने क्षमा के लिये सदा अपवाद यतनाये हैं। जो कर्म हमें दुःखदायी हो. वही कर्म करके दूसरों को दुःख न देने का, आत्मीपम्य-दृष्टि का सामान्य धर्म है तो ठीक, परन्तु महाभारत में निर्णय किया है कि जिस समाज में आत्मौपम्य-दृष्टिवाले सामान्य धर्म की जोड़ के इस दूसरे धर्म के-कि हमें भी दूसरे लोग दुःख न दें- पालनेवाले न हों, उस समाज में केवल एक पुरुष ही यदि इस धर्म को पालेगा तो कोई लाभ न होगा। यह समता शब्द ही दो व्यक्तियों से संबद्ध अर्थात् सापेक्ष है। अतएव आततायो पुरुप को मार डालने से जैसे अहिंसा धर्म में वहा नहीं लगता, वैसे ही दुष्टों का उचित शासन कर देने से साधुओं की आत्मापम्य- बुद्धि या निश्शश्नुता में भी कुछ न्यूनता नहीं होती । बल्कि दुष्टों के अन्याय का प्रतिकार कर दूसरों को बचा लेने का श्रेय अवश्य मिल जाता है। जिस परमेश्वर की अपेक्षा किसी की भी बुद्धि अधिक सम नहीं है, जब वह परमेश्वर भी साधुओं की रक्षा और दुष्टों का विनाश करने के लिये समय-समय पर अवतार ले कर लोकसंग्रह किया करता है (गी. ४.७ और ८) तव और पुरुषों की यात ही क्या है? यह कहना श्रमपूर्ण है। " वलधैव कुटुम्बकम् " रूपी बुद्धि हो जाने से अथवा फलाशा छोड़ देने से पात्रता-पात्रता का अथवा योन्यता अयोग्यता का भेद भी मिट जाना चाहिये । गीता का सिद्धान्त यह है कि फल की आशा में ममत्वबुद्धि प्रधान होती है और उसे छोड़े विना पाप-पुण्य से छुटकारा नहीं मिलता। किन्तु यदि किसी सिद्ध पुरुष को अपना स्वार्य साधने आवश्यकता न हो, तथापि यदि वह किसी अयोग्य प्रादमी को कोई ऐसीवन्तु ले लेने दे कि जो उसके योग्य नहीं, तो उस सिद पुरुष को अयोग्य आदमियों की सहायता करने का, तथा योग्य साधुओं