सिद्धावस्या और व्यवहार । ३६१ ६३)। भारत का यही श्लोफ बौद्ध ग्रन्थों में है (देखो धम्मपद ५ और २०१६ महावग्ग १०.२ एवं ३), और ऐसे ही ईसा ने भी इसी तय का अनुकरण इस प्रकार किया है" तू अपने शत्रुओं पर प्रीति कर " (मैथ्यू. ५.४४), और "कोई एफ फनपटी में मारे तो तू दूसरी भी प्रागे कर दे" (मेथ्यू. ५. ३६, प्यू. ६.२६)। ईसामसीह से पहले के चीनी तत्त्वज्ञ ला-पोन्से का भी ऐसा ही कथन है और भारत की सन्त-मण्डली में तो ऐसे साधुओं के इस प्रकार प्राचरण करने की बहुतेरी कथाएँ भी हैं । क्षमा अथवा शान्ति को पराकाष्टा का उत्कर्ष दिखलानेवाले इन उदाहरणों की पुनीत योग्यता को घटाने का हमारा बिलकुल इरादा नहीं है। इस में कोई सन्देह नहीं कि सत्य के समान ही यह क्षमा-धर्म भी अन्त में अर्थात् समाज की पूर्ण अवस्था में अपवाद-रहित और नित्य रूप से बना रहेगा । और वहुत क्या कहें, समाज की वर्तमान अपूर्ण अवस्था में भी अनेक अवसरों पर देखा जाता है कि जो काम शान्ति से हो जाता है, यह क्रोध से नहीं होता । जव अर्जुन देखने लगा कि दुष्ट दुर्योधन की सहायता करने के लिये फोन फान योद्धा आये हैं, तब उनमें पितामह और गुरु जैसे पूज्य मनुष्यों पर एष्टि पड़ते ही उसके ध्यान में यह पात प्रा गई कि दुर्योधन को दुष्टता का प्रतीकार करने के लिये उन गुरु जनों को शत्रों से मारने का दुष्कर कर्म भी मुझे करना पड़ेगा कि जो फेवल फर्म में ही नहीं, प्रत्युत अर्थ में भी प्रासक्त हो गये हैं (गी.२.५); और इसी से वह कहने लगा कि यद्यपि दुर्योधन दुष्ट हो गया है, तथापि " न पापे प्रतिपापः स्यात". वानन्याय से मुझे भी उसके साथ दुष्ट न हो जाना चाहिये, “ यदि वे मेरी जान भी ले लें तो भी (गी. १.४६ ) मेरा 'निवर' अन्तःकरण से चुपचाप बैठ रहना ही उचित है।" अर्जुन की इसी शक्षा को दूर यहा देने के लिये गीताशास्त्र की प्रवृत्ति हुई और यही कारण है कि गीता में इस विषय का जैसा खुलासा किया गया है वैसा और किसी भी धर्मग्रन्थ में नहीं पाया जाता । उदाहरणार्थ, बौद्ध और क्रिश्चियन धर्म निवरत्व के तत्व को वैदिकधर्म के समान ही स्वीकार तो करते हैं परन्तु इनके धर्मग्रन्थों में स्पष्टतया यह बात कही भी नहीं बतलाई है कि (लोकसंग्रह की अथवा प्रात्मसंरक्षा की भी परया न करनेवाले) सर्व कर्मत्यागी संन्यासी पुरुष का व्यवहार, और (बुद्धि के अनासक्त एवं निवर हो जाने पर भी उसी अनासक और निवर युद्धि से सारे बर्ताव करनेवाले) कर्मयोगी का व्यवहार-ये दोनों सोश में एक नहीं हो सकते । इसके विपरीत पश्चिमी नीतिशास्त्रवेत्ताओं के आगे यह येठच पहेली खड़ी है कि ईसा ने जो नित्य का उपदेश किया है उसका जगत् की नीति से समुचित मेल कैसे मिला और निशे नामक आधुनिक जर्मन पण्डित ने अपने अन्यों में यह मत बाँट के साथ लिखा है कि निवरत्व का यह धर्मतव गुलामगिरी का और घातक है, एवं इसी को श्रेष्ठ माननेवाले ईसाई धर्म ने
- Soo Paulsun's System of Ethics, Book III. chap. X. (Eng.
Trans.) and Nietzsche's Anti-Christ,