३६० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाच । प्रत्येक मनुष्य को अपनी आत्मौपम्य-बुद्धि अधिक अधिक व्यापक बना कर पहचानना चाहिये कि जो प्रान्मा हम में है यही सव प्राणियों में है, और अन्त में इसी के अनुसार वर्ताव भी करना चाहिये-यही ज्ञान की तथा आश्रम-व्यवस्था की पर- मावधि अथवा मनुप्यमान के साध्य की सीमा है। श्रात्मौपम्य-बुदिरूप सूत्र का अन्तिम और व्यापक अर्थ यही है। फिर यह आप ही सिद्ध हो जाता है कि इस परमावधि की स्थिति को प्राप्त कर लेने की योग्यता जिन जिन यज्ञ-दान आदि को से बढ़ती जाती है, वे सभी कर्म चित्त-शुद्धिकारक. धम्य और अतएव गृहस्थाश्रम में कर्तव्य हैं। यह पहले ही कह पाये है कि वित्त-शुद्धि का ठीक अर्थ स्वार्थवाद का छूट जाना और ब्रह्मात्मैक्य को पहचानना है एवं इसी लिये स्मृतिकारों ने गृह- स्थाश्रम के कर्म विहित माने हैं। याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को जो "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः " श्रादि उपदेश किया है, उसका मर्म भी यही है। अध्यात्मज्ञान की नींव पर रचा हुआ कर्मयोगशास्त्र सव से कहता है कि, “प्रात्मा वै पुत्रनामासि " में ही प्रात्मा की व्यापकता को संकुचित न करके उसकी इस स्वाभाविक न्याति को पहचानो कि “लोको वै अयमात्मा"; और इस समझ से वर्ताव किया करो कि “ उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् "यह सारी पृथ्वी ही बड़े लोगों की घर-गृहस्थी है, प्राणिमात्र ही उनका परिवार है। हमारा विश्वास है कि, इस विषय में हमारा कर्मयोग-शास्त्र अन्यान्य देशों के पुराने अथवा नये किसी भी कर्म- शास्त्र से हारनेवाला नहीं है। यही नहीं, उन सब को अपने पेट में रख कर परमेश्वर के समान ' दश अंगुल 'वचा रहेगा। इस पर भी कुछ लोग कहते हैं कि, आत्मौपम्य भाव से “ वसुधैव कुटुम्बकम् ". रूपी चैदान्ती और व्यापक दृष्टि हो जाने पर हम सिर्फ उन सद्गुणों को ही न खो बैठेगे, कि जिन देशाभिमान, कुलाभिमान और धर्माभिमान आदि सद्गुणों से कुछ वंश अथवा राष्ट्र आज कल उन्नत अवस्था में हैं, प्रत्युत यदि कोई हमें मारने या कष्ट देने आवेगा तो, “निरः सर्वभूतेषु " (गी. ११.५५) गीता के इस वाक्यानुसार, उसको दुष्टबुद्धि से लौट कर न मारना हमारा धर्म हो जायगा (देखो धम्मपद ३३८), अतः दुष्टों का प्रतीकार न होगा और इस कारण उनके बुरे कामों में साधु पुरुषों की जान जोखिम में पड़ जावेगी। इस प्रकार दुष्टों का दव- दवा हो जाने से, पूरे समाज अथवा समूचे राष्ट्र का इससे नाश भी हो जायेगा। महाभारत में स्पष्ट ही कहा है कि " न पापे प्रतिपापः स्यात्साधुरेव सदा भवेत् " (वन. २०६.४४) दुष्टों के साथ दुष्ट न हो जावे, साधुता से वत; क्योंकि दुष्टता से अथवा वैर मैंजाने से, वैर कभी नष्ट नहीं होता-नचापि वैरं वैरेण केशव व्युपशाम्यति । इसके विपरीत जिसका हम पराजय करते हैं वह, स्वभाव से ही दुष्ट होने के कारण पराजित होने पर और भी अधिक उपद्रव मचाता रहता है तथा वह फिर यदला लेने का मौका खोजता रहता है-"जयो वैरं प्रसृजति; "अत- एव शान्ति से ही दुष्टों का निवारण कर देना चाहिये (मभा. उद्यो. ७१.५८ और
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