सिद्धावस्था और व्यवहार । अर्थात् अधिकांश लोगों के सुख के तारतम्य से निकलनेवाले लोककल्याण के माधि- भौतिक ताप में इतना ही भेद है, जो ध्यान देने योग्य है । साधु पुरुप मन में लोककल्याण करने का हेतु रख कर, लोककल्याण नहीं किया करते । जिस प्रकार प्रकाश फैलाना सूर्य का स्वभाव है, उसी प्रकार नमज्ञान से मन में सर्वभूतात्मैफ्य का पूर्ण परिचय हो जाने पर लोककल्याण करना तो इन साधु पुरुषों का सहज स्वभाव हो जाता है और ऐसा स्वभाव बन जाने पर सूर्य जैसे दूसरों को प्रकाश देता हुआ अपने ग्राप को भी प्रकाशित कर लेता है वैसे ही साधु पुरुप के परार्थ उद्योग से ही उसका योग-क्षेम भी माप ही आप सिद्ध होता जाता है। पोपकार करने के इस देह-स्वभाव और अनासक्त-सुद्धि के एकत्र हो जाने पर ब्रह्मात्मैक्य-युद्धिवाले साधु पुरुष अपना कार्य सदा जारी रखते हैं कितने ही सघट क्यो न चले आवें, घे उनकी विलकुल परवा नहीं करते और न यही सोचते हैं कि सदों का साइना भला है या जिस लोककल्याण की बदौलत ये संकट पाते हैं, उसको छोड़ देना भला है तथा यदि प्रलमश्रा जाय तो आत्मयलि दे देने के लिये भी तैयार रहते हैं, उन्हें उसकी कुछ भी चिन्ता नहीं होती! किन्तु जो लोग स्वार्थ और पराई को दो भिरा वस्तुएँ समझ, उन्हें तराज के दो पलड़ों में डाल, काँटे का झुकाव देख कर धर्म-अधर्म का निर्णय करना सीखे हुए हैं उनकी लोककल्याण करने की इच्छा का इतना तीम हो जाना कदापि सम्भव नहीं है। अतएव प्राणिमात्र के हित का सरप यद्यपि भगवद्गीता को सम्मत है, तथापि उसकी उपपति आधिकांश लोगों के प्रधिक याइरी सुखों के तारतम्य से नहीं लगाई है। किन्तु लोगों की संख्या अथवा उनके सुखों की न्यूनाधिकता के विचारों को श्रागन्तुक अतएव कृपण कहा है, तथा शुद्ध व्यवहार की मूलभूत साम्यनुदि की उपपत्ति अध्यात्मशास्त्र के नित्य यमज्ञान के आधार पर बतलाई है। इससे देख पड़ेगा कि प्राणिमात्र के हितार्थ उद्योग करने या लोककल्याण अथवा परोपकार करने की युक्तिसंगत उपपत्ति अध्यात्म-दृष्टि से क्योंकर लगती है। अय समाज में एक दूसरे के साथ बर्तने के सम्बन्ध में साम्यन्युद्धि की दृष्टि से हमारे शास्त्रों में जो मूल नियम पतलाये गये हैं, उनका विचार करते हैं। " यत्र वा अस्य सर्वमात्मैवाभूत् " (वृह. २. ४. १४) जिसे सर्व प्रात्ममय हो गया, वह साम्ययुद्धि से ही सब के साथ पर्तता है-यह तत्त्व वृहदारण्यक के सिवा ईशा- पास्य (६) और कैवल्य (१.१०) उपनिषदों में, तथा मनुस्मृति (१२.६१ और १२५) में भी है, एवं इसी तस्व का गीता के छठे अध्याय (६. २९) में “सर्व- भूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि " के रूप में अक्षरशः उल्लेख है । सर्वभूता- स्मैक्य अथवा साम्यबुद्धि के इसी तत्व का रूपान्तर आत्मौपम्यदृष्टि है। क्योंकि इससे सहज ही यह अनुमान निकलता है कि जब मैं प्राणिमात्र मैं हूँ और मुझ में सभी प्राणी हैं, तब मैं अपने साथ जैसा वर्तता हूँ वैसा ही अन्य प्राणियों के साथ भी मुझे धर्ताव करना चाहिये । अतएव भगवान ने कहा है कि, इस " यात्मौपम्य-
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