३८४ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ही कह सकते हैं कि, परोपकार-युदि एक नैसर्गिक गुण है और वह उतान्ति-वाद के अनुसार बढ़ रहा है। किन्तु इतने से ही परोपकार की नित्यता लिद्ध नहीं हो जाती; यही नहीं बल्कि स्वार्थ और परार्य के झगड़े ने इन दोनों घोड़ों पर सवार होने के लालची चतुर स्वार्थियों को भी अपना मतलब गाउने में इसके कारण अवसर मिल जाता है। यह बात हम चौथे प्रकरण में चला चुके हैं। इस पर नी कुछ लोग कहते हैं कि परोपकार बुद्धि को नित्यता सिद्ध करने में लाम ही क्या है! प्रागिानात्र में एक ही त्रात्ना मान कर यदि प्रत्येक पुरुप सदा-सर्वदा प्राणिमात्र न ही हित करने लग जाय तो उसको गुजर केले होगी ? और जब वह इस प्रकार अपना ही योग-क्षम नहीं चला सन्ता, तब वह और लोगों का कल्याण नही केले सकेगा? लेकिन ये शहाएँ न तो नई ही हैं और न ऐसी हैं कि जो टाली न जानने भगवान् ने गीता में ही इस प्रश्न का यों उत्तर दिया है- “तेपां नित्यानिधुजान योगक्षेमं वहान्यहर" (गी. ६. २२); और अध्यात्मशास्त्र की युक्तियों से भी चही अर्थ निप्पल होना है। जिसे लोक कल्यागा करने की बुद्धि हो गई, उसे कुछ खाना-पीना नहीं छोड़ना पड़ता; परन्तु उसकी बुद्धि ऐसी होनी चाहिये किन लोग्न- पकार के लिये ही देह धारण भी करता हूँ। जनक ने कहा है (ममा, अश्व.३२) कि जब ऐसी बुद्धि रहेगी तभी इन्द्रियाँ कात्रु में रहेंगी और लोकल्ल्याण होगा; और मीमांसकों के इस सिद्धान्त का तत्व भीयही है कि यन करने ले शेषवंचा हुआ अन्न ग्रहण करनेवाले को 'अनृताशी' कहना चाहिये (गी. १.३.)। क्योंकि, उनकी दृष्टि से जगत् को धारण-पोपण करनेवाला कर्म ही यज्ञ है, अवस्व लोक कल्याण-कारक कर्म करते समय उसी से रुपमा निर्वाह होता है और करमानी चाहिये, उनका निश्चय है कि अपने स्वार्थ के लिये यज्ञ-त्रक को बुवा देना अच्छा नहीं है। दासबोध (६.४.३०)में श्रीसनर्य ने भी वर्णन जिया है कि वह परोपकार ही करता रहता है, उसको सब को जल्रत बनी रहती है, ऐसी दशा में उसे भूमण्डन में किस बात की कमी रह सकती है ? " व्यवहार की दृष्टि से देखें तो भी काम करनेवाले को जान पड़ेगा कि यह उपदेश बिलकुल यथार्य है। सारांश; जगत में देखा जाता है कि लोककल्याण में जुटे रहन- वाले पुरुष का योग-ज्ञम कभी अटकता नहीं है । केवल परांपचार करने के लिये उसे निष्काम बुद्धि से तैयार रहना चाहिये । एक बार इस भावना के हद हो जाने पर, कि सभी लोग मुझ में हैं और मैं लब लोगों में हूँ,' फिर यह प्रश्न ही नहीं हो सकता कि परार्य से स्वार्थ मिद्ध है। मैं' पृथक् और लोग पृषक इस प्राधिौतिक द्वैत बुद्धि से अधिकांश लोगों के अधिक सुख ' करने के लिये वो प्रवृत्त होता है, उसके मन में ऊपर लिखी हुई ब्रमा शङ्का उत्पन्न हुआ करती है। परन्तु जो सर्वं खल्विदं ब्रह्म' इस अद्वैत बुद्धि से परोपकार करने में प्रवृत्त हो जाय, उसके लिये यह शङ्का ही नहीं रहती । सर्वभूतात्मन्यबुद्धि से निप्पन्न होने वाले सर्वभूतहित के इस आध्यात्मिक तत्व में, और स्वार्य एवं पराय ली द्वैत के --
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