गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । स्वतन्त्र हो जायगा! इस आक्षेप को हमने अपनी ही कल्पना के बल से नहीं घर घसीटा है, किन्तु गीता-धर्म पर कुछ पादड़ी यहादुरों के किये हुए इस ढंग के आदेप हमारे देखने में भी पाये हैं * । किन्तु हमें यह कहने में कोई भी दिक्कत नहीं जान पड़ती कि ये प्रारोप या आक्षेप बिलकुल मूर्खता के अथवा दुराग्रह के हैं। और यह कहने में भी कोई हानि नहीं है कि आफ्रिका का कोई काला कलूटा जाली मनुष्य सधेरै हुए राष्ट्र के नीतितत्त्वों का आकलन करने में जिस प्रकार अपान और असमर्थ होता है, उसी प्रकार इन पादड़ी भलेमानसों की बुद्धि वैदिक धर्म के स्थितप्रज्ञ की साध्यात्मिक पूर्णावस्था का निरा आकलन करने में भी स्वधर्म के न्य दुराग्रह अथवा और कुछ नो एवं दुष्ट मनोविकारों से असमय हो गई है। जी. सवी सदी के प्रसिद्ध जर्मन तत्त्वज्ञानी कान्ट में अपने नीतिशास्त्र विषयक अन्य में अनेक स्थलों पर लिखा है कि कर्म के बाहरी फल को न देख कर नीति के नियं. यार्थ कर्ता की बुद्धि का ही विचार करना रचित है। किन्तु हमने नहीं देखा, कि कान्ट पर किसी ने ऐसा श्राप दिया हो। फिर वह गीतावाले नीतिताव को ही उपयुक्त कैसे होगा? प्राणिमात्र में समयुद्धि होते ही परोपकार करना तो देव का स्वभाव ही बन जाता है और ऐसा हो जाने पर परमज्ञानी एवं परम शुबुद्धि- वाले मनुष्य के हाथ स कुफर्म होना स्तना ही सम्भव है जितना कि अमृत से मृत्यु हो जाना । कर्म के बाख फल का विचार न करने के लिये जब गीता कहती ई, तय उसका यह अर्थ नहीं है कि जो दिल में आ जाय सोफिया करो मत्युत गीता कहती हैं कि अब बाहरी परोपकार करने का ढोंग पाखण्ड से या लोम से कोई मी कर सकता है किन्तु प्राणिमात्र में एक प्रात्मा को पहचानने से वुदि में जो स्थिरता और समता मा ज्ञाती है उसका स्वींग कोई नहीं बना सकता; तब किसी भी • कलकत्तै के एक पादड़ी की ऐसी करनून का उत्तर मिस्टर झुक्त ने दिया है जो कि, उनके Kurukshetra (कुरुक्षेत्र ) नानक छपे हुए निबंध के अंत में है । उसे देखिये, (Kurukshetra, Tyasakhrama. Adyar, Aladras, pp. 48-52). f “The second proposition is: That an action done from duty derives its moral orth, not from the purpnsc which is to be attained by it, but from the maxim by which it is determi. ned. "...The moral worth of an action " cannot lie any where but in the principle of the will, without regard to the ends which can be attained by action. " Kant's Detaphysic of Jlorals ( trans, by Abbott in Kant's Theory of Ethics, p. 16. The italics are author's and not oar cm ), and again " When the question is of moml worth, it is not with the actions thich the see that we are concerned, but with th ward principles of them which we do not see. "p. 24. Toid.
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