& सिद्धावस्था और व्यवहार । ३८१ रष्टि से रुपण पर्यात कनिट की घतला कर समन्दि से पर्म करनेवालों को इस शो में श्रेष्ता दी है। इस शो मगरले सो पण में सो यह कहा है कि दरेण पर काम सुमिगोगादनाग-नाग ! समय गुनियोग की अपेक्षा फोरा पर्म अत्यन्त निसट. इसका तात्पर्य यही हार गय अर्जुन ने यह मम रिया" भीमोगा को ले मास?" राव उसको उत्तर भी यही दिया गया। इसका भावार्य यह है कि मरने गा मारने की निरी मिया पी ही कार ध्यान न दे कर देना चाहिये कि मनुष्य विल गति से उस पर पो परता' सारस लोकफ तीसरे चरण में उपदेश कि तू हि यांग समादि पी शरण जा' और शागे उपसंधारानश अठार पध्याय में भी भगवान ने फिर कहा कि "मुनियोग या पारय पर पपन पन पर।" गीता : दसरे अध्याय के एक और सोकले का होता है कि गीता निर कर्म के विचार को यानिट समझ कर दस पग की मेरमा मुद्धि की विचार को अंश मानती। असारच सध्याय में फर्म के भले-वरे सांग साविक, सगल एसर नामस, भंद्र यालाये गये । यदि निर फर्मफल की सार भी गीता का लक्ष्य होता, तो भगवान ने यह फदा शेता कि जो फर्म बहुतेरों को मुरादायक को नहीं साविक है । परनु का न बतला पर स्टार सप्गाय ने कहा कि " साया मोड़ पर मिल गाई से फिया हुमा कम साविक अधया डाम" (गी. द. २३) । प्रांग इससे प्रगट होता कि मर्म के या पास की अपेक्षा करा की निप्याग, समोर निरस गति भी कर्म-सयम का विवंचन करने गीता अधिक माप देती । गधी गाय स्थितप्रज्ञ के प्यवहार के लिग उपयुग करने से लिया होता किलित जिल साम्य बुद्धि से अपनी परावरीयाली, पोटी और साधारगा के साथ पता है, यदी साग्यशुदि उसके जागा या मुख्य ताप पोर इस सावरगा से जो प्रागि. मान का मंगल होता है, पर इस साम्यमानि का गिरा ऊपरी और खानुपहिया परि- गाम है। ही जिसकी युति पूर्ण अवस्था में पगई , पह लोगों को केवल भाधिभौतिक सुख प्राप्त करा देने के लिये ही सपने रूय प्यपहार नगरेगा । यह ठीक वै कि यह दूसरों का गुस्सान न करेगा; पर यह उसका मुख्य ध्येय नहीं है। स्थितप्रज्ञ से प्रयत्न किया करता है जिनसे समाज के लोगों की युधि अधिक अधिक शुद्ध होती जाये और ये लोग अपने समान ही प्रान्त में आध्यात्मिक पूर्गा अवस्था मैं जा पहुँचें। मनुष्य के कर्तव्यों में यही श्रेष्ट और साविक कर्तव्य है। केवल माधिभौतिक मुख-मृद्धि फे प्रयत्नों को हम गांगा जयया रागत समझते हैं। गीता का सिदान्त है कि मर्म-अकर्म के निर्णयार्थ फर्म के याल फल पर ध्यान दे फर फर्मा की शुद्ध-बुद्धि को पी प्रधानता देनी चाहिये । इस पर कुछ लोगों का यह तर्फ पूर्ण मिथ्या पानोप है कि यदि कर्म-फल को न देख कर फेवल शुद्धबुद्धि का ही इस प्रकार विचार करें तो मानना होगा कि शुद-युद्धियाला मनुष्य कोई भी युरा काम कर सकता है ! और तत्र तो २६ सभी पुरे कर्म करने के लिये
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