३७८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। ज्ञानी पुरुष अपूर्ण अवस्था के समाज में जो बर्ताव करता है, उसका मूल अथवा बीज तत्व क्या है। चौथे प्रकरण में कह आये हैं कि यह विचार दो प्रकार से किया जा सकता है। एक तो कर्ता की बुद्धि को प्रधान मान कर और दूसरे उसके ऊपरी वर्ताव से। इनमें से, यदि केवल दूसरी ही दृष्टि से विचार करें तो विदित होगा कि स्थितप्रज्ञ जो जो व्यवहार करता है, वे प्रायः सब लोगों के हित के ही होते हैं। गीता में दो बार कहा गया है कि परम ज्ञानी सत्पुरुष 'सर्वभूतहिते रताः' प्राणि- मात्र के कल्याण में निमग्न रहते हैं (गी. ५. २५, १२.४); और महाभारत में भी यही अर्थ अन्य कई स्थानों में आया है। हम ऊपर कह चुके हैं कि स्थितप्रज्ञ सिद् पुरुप अहिंसा श्रादि जिन नियमों का पालन करता है, वही धर्म अथवा सदाचार का नमूना है। इन अहिंसा आदि नियमों का प्रयोजन, अथवा इस धर्म का लक्षण बतलाते हुए महाभारत में धर्म का बाहरी उपयोग दिखलानेवाले ऐसे अनेक वचन हैं,-" अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम् " (वन. २०६. ७३)-अहिंसा और सत्यमापण की नीति प्राणिमात्र के हित के लिये है। “धारणादर्ममित्याहुः" (शां. १०६. १२)-जगत् का धारण करने से धर्म है" धर्म हि श्रेय इत्याहुः (अनु. १०५. १४) कल्याण ही धर्म है;" प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचन कुत्तम् " (शां. १०६. १०)-लोगों के अभ्युदय के लिये ही धर्म-अधर्मशास्त्र बना है अथवा " लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः । उभयत्र सुखोदकः १ (शा. २५८. ४)-धर्म-अधर्म के नियम इसलिये रचे गये हैं किलोकव्यवहार चले और दोनों लोकों में कल्याण हो, इत्यादि । इसी प्रकार कहा है कि धर्म-अधर्म-संशय के समय ज्ञानी पुरुष को भी- लोकयात्रा च द्रष्टव्या धर्मश्चात्महितानि च । लोकव्यवहार, नीतिधर्म और अपना कल्याण-इन बाहरी वातों का तारतम्य से विचार करके " (अनु. ३७. १६ वन. २०६.६०) फिर जो कुछ करना हो, उसका निश्चय करना चाहिये और वनपर्व में राजा शिवि ने धर्म-अधर्म के निर्णयार्थ इसी युक्ति का उपयोग किया है (देखो वन. १३१. ११ और २२)।इन वचनों से प्रगट होता है कि समाज का उत्कर्ष ही स्थितप्रज्ञ के व्यवहार की वाह्य नीति होती है। और यदि यह ठीक है तो आगे सहज ही प्रश्न होता है कि प्राधिभौतिकवादियों के इस अधिकांश लोगों के अधिक सुख अथवा (सुख शब्द को व्यापक करके) हित या कल्याणवाले नीतितत्व को अध्यात्मवादी भी क्यों नहीं स्वीकार कर लेते ? चौथे प्रकरण में हमने दिखला दिया है कि, 'इस अधिकांश लोगों के अधिक सुख' सूत्र में बुद्धि के आत्मप्रसाद से होनेवाले सुख का अथवा उन्नति का और पारलौकिक कल्याण का अन्तर्भाव नहीं होता इसमें यह बड़ा भारी दोप है । किन्तु 'मुख शब्द का अर्थ और भी अधिक व्यापक करके यह दोष अनेक अंशों में निकाल डाला जा सकेगा; और नीति-धर्म की नित्यता के सम्बन्ध में ऊपर दी हुई आध्यात्मिक उपपत्ति भी कुछ लोगों को विशेष महत्व की न जंचेगी। इसलिये नीतिशास्त्र के 66
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