सिद्धावस्था और व्यवहार । समी यात (एक ही सी) धयं हैं" (कार. ६. १२; रोम. ८.२) उसका आशय या जान के इस वाश्य का प्रायय भी कि "जो भगवान के पुत्र (पूर्ण भक्त) हो गये, उनके हाथ से पाप कभी नहीं हो सकता" (जा. १. ३.६) हमारे मत में ऐसा ही है। जो शुद्धबुद्धि को प्रधानता न दे कर केवल ऊपरी कर्मों से ही नीतिमत्ता का निर्णय करना सीखे हुए हैं, उन्हें यह सिद्धान्त अद्भुत सा मालूम होता है, और " विधि-नियम से परे का मनमाना भला चुरा करनेवाला "-ऐसा अपने ही मन का कुतर्क-पूर्ण अर्थ करके कुछ लोग उल्लिखित सिद्धान्त का इस प्रकार विरयास करते हैं कि " स्थितप्रज्ञ को सभी बुरे कर्म करने की स्वतन्त्रता है"। पर अन्धे को खम्भा न देख पड़े तो जिस प्रकार सम्भा दोपी नहीं है उसी प्रकार पक्षाभिमान के अन्ये इन आदेर-कानों को उझिखित सिद्धान्न का ठीक, ठीक अर्थ अवगत न हो तो इसका दोप भी इस सिद्धान्त के मत्ये नहीं थोपा जा सकता। इसे गीता भी मानती है कि किसी की शुदगुद्धि को परीक्षा पहले पहल उसके ऊपरी आचरण से ही करनी पड़ती है। और जो इस कसौटी पर चौकस सिद्ध होने में अभी कुछ कम हैं, उन नपूर्ण अवस्था के लोगों को उक्त सिद्धान्त लागू करने की इच्छा अध्यात्म-वादी भी नहीं करते । पर जय किसी को बुद्धि के पूर्ण नानिष्ट और निःसीम निष्काम होने में तिल भर भी सन्देह न रहे, तब उस पूर्ण अवस्था में पहुंचे हुए सत्पुरुप को यात निराली हो जानी है। उसका कोई एक-आध काम यदि लोमिट ते विपरीत देख पड़े, तो तस्वतः यही कहना पड़ता है कि उसका चीज निषि ही होगा अथवा वह शाम को टाटे से कुछ योग्य कारणों के होने से ही हुआ होगा, या साधारण मनुष्यों के कामों के समान उसका लोभमूलक या अनीति का होना सम्भव नहीं है। क्योंकि उसकी चुद्धि की पूर्णता, शुद्धता और समता पहले से ही निषित रहती है। बाइबल में लिखा है कि अमाहाम अपने पुत्र का बलिदान देना चाहता था, तो भी उसे पुनया कर डालने के प्रयत्न का पाप मातर पितरं इन्वा राजानोदच खत्तिये । र सानुचर एन्वा अनीघो याति प्राणी ॥ मातरं पितरं इन्वा राजानो दे च सोस्थिये । चेयग्यपत्रम हवा अनापी याति बामणो।। प्रगट है कि धम्मपद में यह कल्पना कोपात की उपनिषद् से ली गई है। किन्तु बौख ग्रन्यकार प्रत्यक्ष मातृक्ष या पितृवय अर्थ न करके 'माता' का तृष्णा और 'पिता' का अभिमान भर्थ करते है। लेपिान हमारे मत में इस लोक का नातितत्व पर अन्धकारों को भली भाँति शात नहीं हो पाया, इसी से उन्होंने यर औपचारिक अर्थ लगाया है। कोपतिकी उपनिषद में " मातृवधेन पितृवधेन" मन्त्र के पहले एक ने कश है कि "यपाप मैनेवृत अर्थात् बामण का वय किया है तो भी मुशे उसका पाप नहीं लगता;" इस से स्पष्ट होता है, कि यहाँ पर प्रत्यक्ष बध ही विवक्षित है। धम्मपद के अङ्ग्रेजी अनुवाद में(S. B. E. Vol. x. pp. 70,71) मेसनूनर साहब ने इन सोकों को जो धीमा की है, हसरे मा में वह भी ठोस नहीं है।
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